[04/10, 4:35 PM] ललित:
दोहा छंद
विषय: माँ
बचपन में था पूछता,माँ से बहुत सवाल।
अब वो माँ से बोलता,काहे करे बवाल।।
दान किये जप भी किये,तीरथ किये हजार।
माँ को जो बिसरा दिया,सब कुछ है बेकार।।
माँ के आँचल की जिसे,मिली हुई है छाँव।
हरदम सीधे बैठते,उसके सारे दाँव।।
माँ की याद सुवास सी,मन निर्मल हो जाय।
जैसे तुलसी आँगने,हरि की याद दिलाय।।
हरि का सुमिरन जो करे,माँ चरणों में बैठ।
हरि उसको आशीष दें,माँ के उर में पैठ।।
माँ साँसों में बस रही,माँ धड़कन,माँ प्राण।
माँ से उऋण न हो सके,सुत देकर भी जान।
'ललित'
[
[11/10, 6:21 PM] ललित:
चौपाई छंद
मोर-मुकुट पीताम्बर धारी,
केशव माधव कृष्ण मुरारी।
अर्जुन जैसे शिष्य तुम्हारे।
सखा सुदामा से हैं प्यारे।
गोप-गोपियों के बनवारी।
जय-जय-जय गोवर्धन-धारी।
तुम राधा के दिल की धड़कन।
महके तुमसे व्रज का कण-कण।
दोहा
बजे सुरीली बाँसुरी,सारी-सारी रात।
कृष्ण तुम्हारे रास में,गोपी भूले गात।
ललित
[12/10, 10:10 PM] ललित:
चौपाईयाँ
ठुमक-ठुमक कर चले कन्हैया।
देख-देख हर्षित हो मैया।
छम-छम-छम पैंजनिया बजती।
अधर मधुर बाँसुरिया सजती।
बजे बाँसुरी हौले-हौले।
आलौकिक मद से व्रज डोले।
मटकी ले जब निकलें सखियाँ।
मट-मट-मट मटकाए अँखियाँ।
मार कंकरी मटकी फोड़े।
गोपी पीछे-पीछे दौड़े।
देख हो रही मटकी खाली।
ग्वाल हँसें सब दे-दे ताली।
दोहे
मनभावन लीला करे,व्रज में माखन-चोर।
गोप-गोपियाँ सब कहें,जय-जय नंदकिशोर।
ललित
[13/10, 2:34 PM] ललित:
आदर्श अतिथि स्वागत
द्वारपाल संदेशा लाया।
मित्र सुदामा द्वारे आया।
सुना कन्हैया ने जैसे ही।
छोड़ दिया आसन वैसे ही।
दौड़ पड़े दर्शन करने वो।
प्रेम-सुधा वर्षण करने वो।
देख मित्र की जर्जर काया।
श्याम नयन में जल भर आया।
तुरत मित्र को गले लगाया।
कहा नहीं क्यों पहले आया?
सिंहासन पर मीत को,बिठा द्वारिकाधीश।
चरणों को निज अश्रु से,धोते हैं जगदीश।
ललित
क्रमशः
[13/10, 7:54 PM] ललित:
चौपाइयाँ
अतिथि भाग दो
सजल नयन थे रुँधे गले थे।
बचपन में वो लौट चले थे।
बात कर रहे दोनों मन की।
रही नहीं सुधि उनको तन की।
कहा कृष्ण ने मत सकुचाओ।
भाभी जी के हाल सुनाओ।
भेजी है क्या भेंट बताओ?
और नहीं अब मुझे सताओ।
मीत सुदामा अब सकुचाए।
तंदुल की क्या भेंट बताए?
दोहा
तंदुल की वो पोटली,कान्हा ने ली छीन।
चकित नयन से देखते,रहे सुदामा दीन।
ललित
[14/10, 3:30 PM] ललित:
चौपाइयाँ
सतरंगी दुनिया को देखा।
देखी बेरंग भाग्य-रेखा।
अपनों ने वो रंग दिखाए।
दूजा कोई रंग न भाए।
रंगों से मनती है होली।
रंग हाथ में बेरँग बोली।
रंग-बिरंगी जवाँ दिवाली।
मात-पिता की झोली खाली।
बदल गए अब सबके ढँग हैं।
रुपयों ने भी बदले रँग हैं।
पार्टी-ध्वज में जैसा रँग है।
वैसा नेता जी का ढँग है।
श्वेत रोशनी सूरज देता।
प्रिज्म उसे रंगीं कर लेता।
ऐसा ही कुछ हम भी कर लें।
नए रंग जीवन में भर लें।
दोहा
धुंधला कोई रंग है,कोई है रतनार।
हर रँग में नौका चला,मत छोड़े पतवार।
ललित
[16/10, 6:00 PM] ललित:
सार छंद
भूल-भुलैया
जीवन की ये भूल-भुलैया,सबको है भटकाती।
आती-जाती साँसों को ये,हौले से अटकाती।
कौन कहाँ कैसे जाएगा,छोड़ जगत का मेला?
जान नहीं पाता है कोई,कैसा है ये खेला?
ललित
[18/10, 6:41 PM] ललित:
चौपाई
पंचतत्त्व
पंचतत्त्व की देह बनाई,
आत्मा इक उसमें बिठलाई।
दूर बैठ दाता फिर देखे।
देह लिखे कर्मों के लेखे।
वही लेख फिर भाग्य बनाते।
कर्म समय से फल दिखलाते।
पुण्य करे कितने भी मानव।
नष्ट न हों कर्मों के दानव।
पाप कर्म से आत्मा रोके।
कदम-कदम पर नर को टोके।
पंचतत्त्व की देह से,मत कर इतना प्यार।
जितने इससे कर सके,कर ले तू उपकार।
ललित
[19/10, 7:44 PM] ललित:
चौपाई
जीत सत्य की होती आई,हरी जड़ें सच ने ही पाई।
सुंदर बुरका ओढ़ बुराई,चुपके से नर मन में आई।
कलियुग में दे सत्य दुहाई,विजय झूठ की देत दिखाई।
लेकिन इक दिन बुरका फटता,तभी झूठ से परदा उठता।
सत्य सामने जब आ जाता,झूठ नहीं फिर टिकने पाता।
दोहा
दामन थामे सत्य का,बढ़ मंजिल की ओर।
नहीं झूठ से छू सके,मंजिल का तू छोर।
ललित
[20/10, 7:49 AM] ललित:
चौपाई
जीत सत्य की होती आई,हरी जड़ें सच ने ही पाई।
सुंदर बुरका ओढ़ बुराई,चुपके से नर मन में आई।
कलियुग में दे सत्य दुहाई,विजय झूठ की देत दिखाई।
लेकिन इक दिन बुरका फटता,तभी झूठ से परदा हटता।
सत्य सामने जब आ जाता,झूठ नहीं फिर टिकने पाता।
दोहा
दामन थामे सत्य का,बढ़ मंजिल की ओर।
नहीं झूठ से छू सके,मंजिल का तू छोर।
ललित
[20/10, 8:39 PM] ललित:
चौपाई
अमृतसर दुखान्तिका
मौत कहाँ कैसे आएगी,
साथ किसे कब ले जाएगी?
जान कहाँ मानव है पाता,
दबे पाँव यम है आ जाता ।
साठ जनों को मौत दिखाई,
अमृतसर कैसा वो भाई।
कहीं न कोई पत्ता खड़का,
जलता रावण ऐसा भड़का।
मौत दौड़ती सरपट आई,
कहो कौन था वहाँ कसाई?
किसकी थी ये जिम्मेदारी,
लाशें बिछी धरा पर सारी।
दोहा
रोक सको तो रोक लो,
अनहोनी को आप।
वरना मौत कहाँ कभी,
देती अपनी थाप?
ललित
[21/10, 4:21 PM] ललित:
चौपाइयाँ
नाम राधिका का यदि जपते,
जीवन के ये पथ क्यों तपते?
राधा का जो नाम सुमिरते,
वो नर भवसागर से तरते।
नाम जपे हर पल राधा का।
नहीं उसे डर भव-बाधा का।
उसी कृष्ण को प्यारी राधा।
करे दूर जो सबकी बाधा।
राधा नाम उसे है प्यारा।
जो है जग का तारण-हारा।
जय-जय श्याम-राधिका प्यारे।
ताप-व्याधि हर सब नर तारे।
दोहा
राधा-राधा जो जपे,भव-सागर तर जाय।
दर्शन कान्हा के मिलें,आत्म-ज्ञान फल पाय।
ललित
[22/10, 7:27 PM] ललित:
मुक्तक 14:14
न समझे प्यार की भाषा,न खोले प्यार का खाता।
निगाहों से हसीं दिलवर,नशीले तीर बरसाता।
बना अंजान वो फिरता,चलाकर तीर नजरों के।
यहाँ दिल है हुआ घायल,वहाँ वो गीत है गाता।
ललित
[27/10, 10:51 AM] ललित:
हरिगीतिका छंद
करवा चौथ स्पेशल
है आज करवा चौथ का व्रत,
आप ही तो खास हो।
मैं प्यार करतीे आपसे ही,
आज तो विश्वास हो।
व्रत आज ये मैंने रखा जी,
आपके हित के लिए।
ला दीजिए उपहार कोई,
इस पुजारिन के लिए।
ललित
[27/10, 6:19 PM] ललित:
हरिगीतिका छंद
पूजा करूँगी मैं तुम्हारी,
मान लो मनुहार तुम,
जो बन पड़े तुम से वही कुछ,
आज दो उपहार तुम।
लो सूट ये पहनो नया तुम,
और टाई घाल दो।
सेल्फी खिंचा कर साथ मेरे,
फेस बुक पर डाल दो।
ललित
[27/10, 7:31 PM] ललित:
आधार छंद
नाक नथनियाँ झूमती,अधरों पर मुस्कान।
हार गले में नौलखा,चितवन तीर कमान।
पायल की छम-छम करे,खुशियों की बौछार।
सजनी के इस रूप पर,साजन जी कुर्बान।
ललित
[28/10, 8:06 PM] ललित:
कुण्डल छंद
जिंदगी किताब जान,ध्यान से पढ़ो जी।
शब्दों का गूढ़ अर्थ,जान तुम बढ़ो जी।
मित्र और अमित्र का,भेद जरा जानो।
शत्रु की मिठास भरी,बात नहीं मानो।
ललित
[28/10, 8:11 PM] ललित:
कुण्डल छंद
देख दिवाली मकान,साफ कर लिया है।
फालतू कबाड़ खूब,बेच भी दिया है।
लेकिन मन का न मैल,छूट हाय पाया।
जाए न मन को छोड़ ,अंत हीन माया।
ललित
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