दोहे
मन ही मन सुमिरन करो,धरो रैन दिन ध्यान।
जाके मन में राम हैं,वाको है कल्यान।
मूरत सीताराम की,मन में लीनि बसाय।
हनुमत नाचें प्रेम से,राम नाम मन लाय।
राम नाम जपते हुए,तन से निकलें प्रान।
यह वर मोहे दीजिये,रघुवर कृपा निधान।
साथी इस संसार में,झूठा है हर एक।
केवल रब है आपना,साथी सब से नेक।
कहे विभीषण राम हैं,श्री भगवत अवतार।
रावण सच माने नहीं,राम उतारें पार।
बाँधी हनुमत पूँछ से,जलती हुयी मशाल।
वानर ने इक मूँज से,लंका दीनी बाल।
काम क्रोध मद लोभ से,बिगडें सारे काज।
धू-धू करके जल रही,निसिचर नगरी आज।
धर्मराज खेलें जुआँ,लगा द्रोपदी दाँव।
वो दरख्त भी चुप रहे,जो देते थे छाँव।
ललित
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