कान्हा मेरे मन मन्दिर में,
आकर तुम यूँ बस जाओ।
जब भी बन्द करूँ पलकों को,
रूप मनोहर दरशाओ।
गंगाजल-पंचामृत से प्रभु,
रोज तुम्हें मैं नहलाऊँ।
वस्त्र और गहने अर्पण कर,
केसर-चन्दन घिस लाऊँ।
धूप-दीप नेवैद्य चढ़ाकर,
पुष्प-हार सुन्दर वारूँ।
इत्र-गुलाल लगाकर कान्हा,
चरणों की रज सिर धारूँ।
मन ही मन फिर करूँ आरती,
चरण-कमल में झुक जाऊँ।
जग की झूठी प्रीत भुलाकर,
प्यार तुम्हीं से कर पाऊँ।
जग की झूठी माया सच से,
ओत-प्रोत हो रहती है।
सच की अनगिन पर्तों की वो,
ओट लिए जो रहती है।
मृग मरीचिका माया मन को,
यों दबोच कर रखती है।
चंगुल से वो छूट न पाये,
माया ही सच दिखती है।
विष से क्यूँ भर दीनी प्रभु जी,
मानव की सुंदर काया।
नव द्वारों की देह भेदकर,
गरल सदा बाहर आया।
ऐसी कृपा करो अब भगवन,
यह विष अमृत बन जाए।
मानव इस धरती पर हरदम,
प्रेम सुधा रस बरसाए।
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