प्रकाशन 1 ताटंक छंद

ताटंक छंद

मेरा तो चितचोर वही है,गोवर्धन गिरधारी जो।
बाँका सा वो मुरली वाला,मटकी फोड़े सारी जो।
आसानी से हाथ न आवे,नटखट नागर कारा है।
राधा जी के पीछे भागे,उन पे वो दिल हारा है।

राम जपे है मुख से लेकिन ,मन में माया  का वासा।
ऐसे जापक का तो अक्सर,उल्टा पड़ता है पासा।
ज्ञानी था वो रावण जिसने,सतत राम को ध्याया था।
बन कर शत्रु राम का जिसने,परम मोक्ष को पाया था।

नन्हे-नन्हे हाथों में वो,लकुटी ले वन जाते हैं।
गैयाँ हैं उनको अति प्यारी,मुरली मधुर बजाते हैं।
गोप-ग्वाल सब मुग्ध हुए हैं,दर्शन निपट निराले हैं।
राधा मोहन की छवि ऐसी,बेसुध सारे ग्वाले हैं।

कितने अरमानों से बेटे,मैंने तुझको पाला था।
जग की सारी खुशियाँ तुझको,देता मैं मतवाला था।
आज उन्हीं खुशियों के बदले,हार गमों के देता तू।
कब जाओगे दुनिया से तुम,पूछ प्यार से लेता तू।

No comments:

Post a Comment