अगस्त 19
चौपाई
तन-मन-धन
बड़ा लालची मानव मन है,
हर रिश्ते में खोजे धन है।
ईश्वर को भी धन दिखलाए,
हरि को भी देना सिखलाए।
तन करता धन का साधन है,
मन काला और गोरा तन है।
नहीं मिले जब मनचाहा धन।
बिदक-बिदक जाता है ये मन।
धनवानों को सब ही पूजें।
देख रंक को मुखड़े सूजें।
धन ने रिश्तों को बिसराया।
मन मानव का समझ न पाया।
दोहा
तन-मन-धन का खेल ये,मानव समझ न पाय।
धन के पीछे मन चले,और चले तन हाय।
ललित
कुण्डलिनी छंद
माया
इतनी उलझी डोर में,माया की भगवान।
क्यों बाँधा तूने बता,भोला ये इंसान?
भोला ये इंसान,डोर में ऐसा उलझे।
खूब लगाए जोर,नहीं फिर भी वो सुलझे।
ललित
मुक्तक 16-12
हमसफर
कुछ दूर तक तो साथ मेरे,चल जरा ओ हमसफर।
ये ज़िन्दगी है खूब छोटी,खूबसूरत है डगर।
मंजिल तलक चलती रहेंगी,प्यार की पुरवाइयाँ।
हर राह की तन्हाइयों में,साथ होगा तू अगर।
ललित
चौपाइयाँ
दिल की धड़कन
दिल की धड़कन क्या कहती है?
मन को ये चिन्ता रहती है।
क्या दिल में ममता रहती है?
या थोड़ी समता रहती है?
क्या छुप-छुप कर रोता है दिल?
या गम ओढ़े सोता है दिल?
क्या खुशियों में दिल हँसता है?
या आशा में वो फँसता है?
क्या भूखा ही रहता है दिल?
या सूखा ही रहता है दिल?
दिल करता मन से विनती है।
क्या दिल की भी कुछ गिनती है?
दोहा
दिल गूँगा-बहरा नहीं,और न ये पाषाण।
दिल से ही इंसान है,दिल में ही हैं प्राण।
ललित
.4.08.19
चौपाइयाँ
दिल
दिल अक्सर चुप ही है रहता।
सारे ग़म खुद ही है सहता।
खुशियाँ सबसे साझा करता।
ग़म अपनी झोली में भरता।
ललित
पीयूष वर्ष छंद
श्याम सुंदर
श्याम सुंदर साँवरे मुरलीधरा।
घूम ले कश्मीर तू भी अब ज़रा।
घाटियों में बाँसुरी कुछ यूँ बजा।
आसमाँ छूने लगे भारत-ध्वजा।
'ललित'
पीयूष वर्ष छंद
प्रीत
प्रीत में भीगा हुआ सावन जगा।
प्यार दिल में दस्तकें देने लगा।
गूँजती शहनाइयाँ ले आइए।
कुछ फुहारें प्यार की दे जाइए।
ललित
पीयूष वर्ष छंद
तीन सौ सत्तर
तीन सौ सत्तर हटा ऐसे दिया।
आसमाँ में छेद कर जैसे दिया
दानवों से मुक्त कर कश्मीर को।
है सँवारा हिंद की तकदीर को।
ललित
गीतिका छंद
वादियाँ
वादियों में फूल महके,राह निष्कंटक बनी।
खिल उठे मुख हैं सभी के,और दीवाली मनी।
चाँद मुस्काने लगा है, आसमाँ भी हँस रहा।
दुश्मनों का प्राण मानो,हलक में है फँस रहा।
ललित
गीतिका छंद
ज़िंदगी का कारवाँ
ज़िंदगी के कारवाँ में प्यार की बरसात हो।
खूबसूरत ज़िन्दगी हो प्रीत की सौगात हो।
द्वार से ही लौट जाए दुःख उल्टे पाँव से।
ज़िंदगी शीतल रहे हरदम सुखों की छाँव से।
ललित
पीयूष वर्ष छंद
कश्मीर
हिंद का सरताज जो कश्मीर है।
वो सदा से हिंद की जागीर है।
नींद से अब जाग तू इमरान जा।
हिंद का कश्मीर है ये मान जा
क्या हुआ मायूस तू क्यों होगया?
तीन सौ सत्तर हवा जो हो गया।
डाल मत कश्मीर पर गंदी नज़र।
है हमें आतंक का कुछ भी न डर।
ललित
पीयूष वर्ष छंद
बाँसुरी
बाँसुरी थी क्यों बजाई साँवरे?
छोड़ना था जब तुझे व्रज-गाँव रे।
गोपियों सँग रास भी था क्यों रचा?
राधिका को क्यों रहा था तू नचा?
ललित
पीयूष वर्ष छंद
बदरा
झूम कर बरसो बदरवा साँवरे।
नीर का प्यासा हमारा गाँव रे।
सुन जरा प्यासी धरा की सिसकियाँ।
प्यास से रोती धरा की हिचकियाँ।
ललित
दोहा
नौटंकी करते रहे,इतने दिन तक आप।
क्या अब तक लेते रहे,गहराई का नाप?
ललित
पीयूष वर्ष छंद
राधिका की प्रीत
राधिका की प्रीत ऐसी श्याम से।
राह में आँखें बिछाए शाम से।
श्याम जब आए चमन दिल का खिले।
माधुरी मुस्कान अधरों पर मिले।
ललित
पीयूष वर्ष छंद
गीत
राधिका की प्रीत ऐसी श्याम से।
राह में आँखें बिछाए शाम से।
प्रीत राधा कृष्ण की यों पावनी।
शांत शीतल ज्यों फुहारें सावनी।
रात-रानी सी महक उठती वहाँ।
श्याम राधा का मिलन होता जहाँ।
श्याम जब आए चमन दिल का खिले।
माधुरी मुस्कान अधरों पर मिले।
हर लता खुश हो हवा में झूमती।
चाँदनी निर्मल धरा को चूमती।
चाँद भी कुछ पल ठहर जाता वहाँ।
श्याम राधा का मिलन होता जहाँ।
बाँसुरी छूती अधर जब श्याम के।
गूँजते हैं सुर हृदय विश्राम के।
बंद हों जब नैन राधा के चपल।
दल-दलों में खिल उठें सुंदर कमल।
देवता सब देखते नभ से वहाँ।
श्याम राधा का मिलन होता जहाँ।
ललित
मुक्तक
राधा
बनी घनश्याम की छाया,बिरज में घूमती
है वो।
सुरीली बाँसुरी की धुन,सुने तो झूमती है वो।
बड़ी चंचल बड़ी भोली,दिवानी श्याम की राधा।
चिढ़े वो जिस मुरलिया से,उसी को चूमती है वो।
ललित
मुक्तक 14-14
फुहारें
फुहारें छू रही तन को,अगन में झोंकती मन को।
हवा शीतल सुहानी ये,बढ़ाती और उलझन को।
करे कल-कल नदी ऐसे,नवेली ज्यों चले छम-छम।
चले आओ सजन जल्दी,करो रंगीन सावन को।
ललित
मुक्तक 14-14
सितारे
सितारों की टिमा-टिम से,यहाँ रंगीन हैं रातें।
रजत से चाँदनी-चंदा,करें गुप-गुप मुलाकातें।
हिले वो चाँद सरवर में,चँदनिया गुन-गुनाती है।
नदी के कूल पर सजनी,करें हम प्यार की बातें।
ललित
छंद सिंधु
1222 1222 1222
दो दो समतुकांत
19.08.19
छंद सिंधु
धुन
न जाने कौन सी धुन पर थिरकता मन?
नई नित चाहतों में ये सरकता मन।
बसे मद-मोह-माया लोभ हर रग में।
न मन वश में किया तो क्या किया जग में?
ललित
छंद सिंधु
सुख-दुख
बिना दुख के किसे सुख है यहाँ मिलता?
बिना कंटक चुभे गुल है कहाँ खिलता?
निराला है यहाँ पर भाग्य का लेखा।
परिश्रम से बदलता भाग्य भी देखा।
ललित
छंद सिंधु
बहारें
बहारों का रहे मौसम सदा प्यारा।
तुम्हारी ज़िन्दगी में ग़म न हो याराँ।
मिले हर भोर ताजा इक खुशी तुमको।
भुला लेकिन न देना तुम कभी हमको।
ललित
छंद सिंधु
राधा
दिवानी श्याम की ऐसी हुई राधा।
लुभाए साँवरा रँग और भी ज़्यादा।
निगाहें खोजती हर-पल कन्हैया को।
बजैया बाँसुरी के,गौ-चरैया को।
ललित
कहीं की ईंट कहीं का रोड़ा
भानमती ने कुनबा जोड़ा।
वही बना अब जानी-दुश्मन
जोड़ा था जो थोड़ा-थोड़ा।
महाश्रृंगार छंद
मुरलीधर
सुना है मुरलीधर घनश्याम,बजाता मुरली तू हर भोर।
सुने जो उस वंशी की तान,वही हो जाता
भाव विभोर।
मोरपंखी है तेरा ताज,और तू चोरों का सिरमौर।
चुराता है माखन हर रोज,मचाता है गलियों में शोर।
ललित
पंचचामर छंद
खुशी
कभी मिले खुशी कभी पहाड़ दुःख के मिले।
कभी बहार तो कभी न एक भी कली खिले।
हसीन मोड़ ज़िन्दगी कभी दिखा गई हमें।
कभी हज़ार ठोकरें मज़ा चखा गईं हमें।
ललित
पंचचामर छंद
सुता
सुता मिली नसीब से न हो दुलार की कमी।
गले लगा रखो उसे रहे न प्यार की
कमी।
पढ़ा-लिखा करो जवाँ छुए न आसमान क्यों?
जहाँ सुता पले वहाँ बढ़े न आन-बान क्यों?
ललित
पंचचामर छंद
राम नाम
लिया न नाम राम का जपा न श्याम नाम ही।
न लोभ-मोह से बचा भुला सका न काम ही।
हसीन जिंदगी जिया किए न पुण्य दान ही।
चला गया जहान से बचा सका न प्राण ही।
ललित
पंचचामर छंद
श्याम
बजा रहा न बाँसुरी न एक कौर खा रहा।
न नंद-लाल ग्वाल-बाल-धेनु संग जा रहा।
न खेलता न कूदता न धूम वो मचा रहा।
कि राधिका बिना न श्याम गोपियाँ नचा रहा।
ललित
पंचचामर
देशभक्ति
खिलें वहाँ हजार फूल फौज हिंद की जहाँ।
करे हजार शूल चूर्ण फौज हिंद की वहाँ।
उठा सके न आँख शत्रु देख हिंद के जवाँ।
हरेक जंग के लिए जवान हिंद के रवाँ।
ललित
कुण्डलिनी छंद
कनटोप
कमर-बेल्ट बाँधे हुए,माथ धरे कनटोप।
नहीं चले तो दस गुना,जुर्माना तू सौंप।
जुर्माना तू सौंप,भले टूटी हैं सड़कें।
साँड लड़ें हर ओर,करम-फूटी हैं सड़कें।
ललित
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