विविध


शक्ति छंद
मधुर रास

सितारों भरी चाँदनी रात में,बजी पायलें खूब बरसात में।
गरजते हुए बादलों के तले,मिले राधिका से कन्हैया गले

बजे बाँसुरी चूड़ियाँ भी बजें,हँसें गोपियाँ कृष्ण राधा सजें।
कन्हैया सुनाता नये राग वो,सुनें गोपियाँ तो खुले भाग वो

दसों ही दिशाएं लगी झूमने,धरा भी गगन को लगी चूमने।
सजे मोगरा वेणियों में जहाँ,कन्हैया बजाए मुरलिया वहाँ।

बसन्ती हवाएं छूएं गात को,थिरकने लगीं गोपियाँ रात को।
नथनियाँ हिलें हास के साथ में,कि झुमके हिलें रास के साथ में।

ललित

निश्चल छंद
छलिया घनश्याम

राधा जी की रूप माधुरी,ललित ललाम।
चकित नैन कनखी से निरखे,मनहर श्याम।

अँखियों ही अँखियों से पीता, माखन चोर।
राधा के नैनों की मदिरा,वो नित भोर।

ऐसा जादू करता छलिया,वो घनश्याम।
खिंची चली आती है राधा,सुबहो शाम।

गोप-गोपियाँ हँसी उड़ायें,दे दे ताल।
वो नटखट नैना मटकाए,चूमे गाल।

कैसे कैसे नाच नचाता,नटवर श्याम।
आत्मानंदी रास रचाता,वो निष्काम।

मधुर बाँसुरी से छेड़े कुछ,ऐसी तान।
आलौकिक मद से भर देता,सबके कान।

जादू की मुरली ले आया,माखन चोर।
बजा मधुर वंशी खींचे वोे,मन की डोर।

व्रज का छोरा बरसाने की,छोरी साथ।
जोरा-जोरी करे छुड़ाए,गोरी हाथ।

सिंहावलोकन घनाक्षरी

प्रार्थना

थक गये अब नाथ,
नैया खेते मेरे हाथ।
आप ही सँभालो अब,
पतवार नाव की।

पतवार नाव की लो.
थाम करकमलों में।
झलक दिखादो जरा,
दयालु स्वभाव की।

दयालु स्वभाव की वो,
छवि तारणहार की।
दवा आज दे दो प्रभु,
मेरे हर घाव की।

मेरे हर घाव की वो,
दवा श्याम नाम की जो।
लगन लगा दो तव,
चरणों में चाव की।

ललित

गीतिका छंद

बेटियाँ

प्यार की हर इक कसौटी,पर खरी वो बेटियाँ।
तात-माता की दुलारी,हैं परी वो बेटियाँ।
हौसला दामन छुड़ाए,माँ-पिता का जब कभी।
बेटियाँ देती सहारा,हौसला रख कर तभी।

'ललित'

लावणी मुक्तक

मैं क्या जानूँ

बात कहूँ मैं अपने दिल की,औरों की मैं क्या जानूँ।

फूलों में जजबात नहीं हैं,भौंरों की मैं क्या जानूँ।
प्यार बिके अरमान बिकें हैं,आज यहाँ सब कुछ बिकता।
झरनों में आवाज नहीं है,धौरों की मैं क्या जानूँ।
'ललित'

ताटंक मुक्तक

किरचें

टूटे सपनों की कुछ किरचें,बाकी हैं अब झोली में।
कैसे कैसे रंग दिखे हैं,सपनों की इस होली में।
स्वप्न सुनहरे खो देते हैं,कब क्यूँ अपने रंगों को?
बेरंगा मन बैठा रहता,क्यूँ सपनों की डोली में?

मुक्तक
माँ 

क्यूँ होता है अक्सर ऐसा,माँ छुप-छुप कर रोती है?
बेटा नजरें फेर रहा क्यूँ,सोच दुखी वो होती है।
माँ के अरमानों का सूरज,दिन में क्यूँ ढल जाता है?
एक अँधेरे कोने में वो,बेबस सी क्यूँ  सोती है?

ताटंक छंद

नई धुनें

नये वर्ष में नयी धुनों पर,मुरली श्याम बजा देना।
मेरे अधरों पर मंगलमय,नित नव गीत सजा देना।
मनमंदिर में मूरत तेरी,संग राधिका प्यारी हो।
दिन तो दिन है कान्हा मेरी,नहीं रात भी कारी हो।
'ललित'

कुकुभ मुक्तक

पुष्प

पुष्प बहुत ऐसे देखे हैं,काँटों में जोें पलते हैं।
चुभन सहें कंटक की फिर भी,मुस्कानों में ढलते हैं।
सौरभ उनकी चहुँ दिशि फैले,काँटे बेबस रह जाते।
कंटक चुभ-चुभ थक जाते हैं,दिल ही दिल में जलते हैं।

ललित


कुकुभ मुक्तक

फूल और कााँँटे

फूल और काँटों का रिश्ता,मानव नहीं समझ पाये।
पुष्पों की रक्षा करते ये,काँटे ही हरदम आये।
कंटक से फूलों की शोभा,आजीवन हमदम काँटे।
काँटों में जो फूल खिले वो,कहीं न फिर ठोकर खाये।
ललित

मुक्तक

पहरेदारी


काँटों की पहरेदारी में,फूल सुगंधित खिलते हैं।
प्यार करें कंटक फूलों से,रोज गले वो मिलते हैं।
दुश्मन के हाथों में चुभकर,शूल पुष्प को सहलाएं।
वो कंटक बदनाम हुए जो,दिल के टुकड़े सिलते हैं।

ललित

कुकुभ मुक्तक


प्रेम भरा हो दिल में जितना,उतना ही वो छलकेगा।
नैन झरोखे से वो शीतल,मोती बनकर ढलकेगा।
जिसके सीने में नाजुक सा,प्यार भरा इक दिल होगा।
उसकी उठती गिरती पलकों,में हरदम वो झलकेगा।
ललित

रोला छंद
गीत

दिल के रिसते घाव

दिल के रिसते घाव,छिपाकर जग में डोलो।
अपने मन की पीर,किसी से कभी न बोलो।

देखे सुंदर मीत,देख ली प्रीत अनोखी।
केवल अपनी जीत,लगे है सबको चोखी।
जब भी बोलो बात,जरा मन ही मन तोलो।
अपने मन की पीर,किसी से कभी न बोलो।

झूठा ये संसार,यहाँ की रस्में झूठी।
जो होता गमगीन,उसी से रहती रूठी।
पी लो गम के घूँट,मगर तुम मुँह मत खोलो।
अपने मन की पीर,किसी से कभी न बोलो।

दुनिया की है रीत,किसी के साथ न रोये।
हँसी उड़ाये और,राह में काँटे बोये।
जपलो हरि का नाम,पाप खुद अपने धोलो।
अपने मन की पीर,किसी से कभी न बोलो।

भगवन दयानिधान,उन्हीं से विनती करलो।
हरि को अपना मान,शीश चरणों में धरलो।
तर जाएगी नाव,प्रभू के आगे रो लो।
अपने मन की पीर,किसी से कभी न बोलो।

ललित

रोलाछंद

गीत

दे देते हैं घाव

दे देते हैं घाव,कभी कुछ अपने जन भी।

और कुरेदे घाव,निगोड़ा मानव मन भी।

जिस पर है विश्वास,वही दिल को तोड़ेगा।
जो है अपना खास,वही फिर मुख मोड़ेगा।
सहलाता है घाव,नहीं शीतल सावन भी।
और कुरेदे घाव,निगोड़ा मानव मन भी।

जो होता फनकार,यशस्वी वो हो जाता।
दुनिया भर का प्यार,उसे फन है दिलवाता।
दिल के गहरे घाव,नही भर पाता फन भी।
और कुरेदे घाव,निगोड़ा मानव मन भी।

ईश्वर से विश्वास,कभी यूँ ही उठ जाता।
जिसकी टूटी आस,नहीं फिर वो उठ पाता।
भर देता है घाव,कभी जानी दुश्मन भी।
और कुरेदे घाव,निगोड़ा मानव मन भी।

जीवन भर तो साथ,नहीं तन भी दे पाता।
विषम रोग में साथ,नहीं धन भी दे पाता।
भरें उसी के घाव,करे जो यहाँ भजन भी।
और कुरेदे घाव,निगोड़ा मानव मन भी।

दे देते हैं घाव,कभी कुछ अपने जन भी।
और कुरेदे घाव,निगोड़ा मानव मन भी।

'ललित'

मनोरम छंद
वृद्धावस्था/बुजुर्गी

आँसुओं से तरबतर

आँसुओं से तर बतर था,एक बेबस वृद्ध नर था।
देह जर्जर हो गई थी,वासना भी सो गई थी।

प्यार की प्यासी निगाहें,जो खुली रहना न चाहें।
हर तरफ पसरी उदासी,दे खुशी क्यों कर जरा सी।

याद आती है जवानी,जब नसों में थी रवानी।
पाल बच्चों को लिया था,दो जहाँ का सुख दिया था।

बन गये लायक सभी वो,सुख न दे पाए कभी वो।
व्यस्त सब बच्चे हुए हैं,कान के कच्चे हुए हैं।

स्वप्न सब बिखरे सुनहरे,होगए हैं पूत बहरे।
दर्द में डूबी निगाहें,कण्ठ से निकलें कराहें।

जिन्दगी की क्या कला है?ये बुजुर्गी क्या बला है?
जान जीवन भर न पाया,बालकों ने जो दिखाया।

देह में रमता रहा था,नेह में जीवन बहा था।
स्वार्थमय जीवन जिया था,याद कब रब को किया था।

आज रब है याद आता,भूल इक पल वो न पाता।
या खुदा अब तो रहम कर,दु:ख दारुण ये खतम कर।

प्यार जो उसने दिया था,त्याग जो उसने किया था
काश बच्चे जान पाते,दर्द को पहचान पाते।

नेह से नजरें मिलाकर,दीप आशा का जलाकर।
घाव पर मरहम लगाते,बोल मीठे बोल जाते।

ललित

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छद श्री सम्मान