सब माँ के आशीष से चहको,
अरु गुलाब बनकर तुम महको।
जीवन-पथ में बिछे जो कंटक
देख उन्हें तुम कभी न बहको।
'ललित'
12.11.15
एक प्रयास
समीक्षार्थ
गोवर्धन है धारा देखो,साँवरिया गिरधारी ने।
इन्द्र देव का तोड़ा है भ्रम,बाँके मुकुट बिहारी ने।
भोगी की नहिं करनी पूजा,समझाया ब्रजवासिन को।
ईश तत्व जो जग में व्यापा,पुजवाया बनवारी ने।
ललित
एक मुक्तक
नवीन जी के सुझाव से परिष्कृत
न जाने जहाँ ये सरक क्यूँ रहा है।
हरिक खास रिश्ता दरक क्यूँ रहा है।
दिलों की दिलों से बढ़ी दूरियाँ क्यूँ।
भुगत रोज मानव नरक क्यूँ रहा है।
ललित
कैसा था बालकपन प्यारा,कैसी वो नादानी थी।
भागे फिरते घर में सारे,फिक्र कोई ना जानी थी।
फिर से आजा नटखट बचपन,बनकर तू पोता-पोती।
एक बार फिर जी लें हँसकर,अब तक आनाकानी थी।
'ललित'
एक मुक्तक
हमारे पते का पता तुम बता दो।
हमारे दुखों को बता तुम धता दो।
प्रभूआप से हम करें आज विनती।
हमारी सिरे से भुला तुम खता दो।
एक मुक्तक
बड़ी आज बिगड़ी हुयी है कहानी।
हमें एक दुनिया नयी है बसानी।
सुनो शारदे माँ करो कुछ कृपा यों
चलें साथ सब ही लिखें कुछ रुहानी।
ललित
15.11.15
एक मुक्तक
समीक्षा हेतु
किसी की नजर आज हमको लगी है
हमारी हँसी आज गम से पगी है।
समय कर रहा क्रूर से ये इशारे
गजल भी नहीं अब हमारी सगी है।
ललित
एक मुक्तक
आइना
आइना सच बोलता है,था सुना हमने कभी।
आइना खुद सच नहीं है,ये सुना हमने अभी।
आइना जो कुछ दिखाता,एक माया-जाल है।
देह-नश्वर को दिखाते,आइने सुंदर सभी।
ललित
लावणी
मुक्तक
बात सदा दुनियावी लिखता,नूरानी भी कुछ तो लिख।
महबूबा की पायल लिखता,माँ का सूना आँचल लिख।
जो लायी थी तुझे धरा पर,आँखों में कुछ ख्वाब लिए।
उसकी बुझती आँखों में भी,सपनों की सच्चाई लिख।
'ललित'
मुक्तक
16-14
पूछ रही हैं आज हवाएं,हम मूरख नादानों से।
कैसे अपनी लाज बचाएं,धरती के हैवानों से।
नदियाँ सूखी,पर्वत रूखे,इनकी कारस्तानी से।
कहलाते जो बाग कभी थे,दिखते आज मसानों से।
'ललित'
एक मुक्तक
आत्म ज्ञान
लहर का पता पूछते हैं किनारे।
कहाँ आसमाँ? ढूँढते हैं सितारे।
जिसे ढूँढता फिर रहा मन्दिरों में।
बसा आत्म में कर रहा है इशारे।
'ललित'
21.03.16
मुक्तक
112 112 बहर पर
कुछ और नहीं अब काम रहा।
जप मोहन का बस नाम रहा।।
वह छोड़ गये सब आश्रम में।
जिनके मन में हर शाम रहा।।
परिवार प्रभू समझा जिसने।।
यह जीवन व्यर्थ किया उसने।
अपने हित भी कुछ दाम रखो।
कब साथ दिया किसका किसने।।
'ललित'
तोटक
जब आँख जरा लगती थकती।
तब रात धरा-नभ को ढकती।
यह रात कहे इक बात सही।
बचती मुझसे हर भोर रही।।
ललित
शुभ रात्रि
22.03.16
मुक्तक
16 14
प्रथम प्रयास
समीक्षा हेतु
ढूँढ रहा था उस पगली को,चाहा था दिल ने जिसको।
कैसा पागलपन था यारों,चाहा था दिल ने किसको।
आज मिली वो अनजाने में,दिल पर नहीं रहा काबू।
नजरों में वो नजर डालकर,बोल रही आगे खिसको।
'ललित'
मुक्तक
16 14
होली
कुछ तो भेद छुपा है यारों,इन होली के रंगों में।
बेशर्मो से समा गए हैं,जो गोरी के अंगों में।
दूर सदा हम से रहती थी,जो शर्माई गुड़िया सी।
आज हुई खुश हो के शामिल,इन होली के पंगों में।
'ललित'
तीसरा मुक्तक
16 14
कुत्ते की सेवा
आज भोर में हमने देखे,इक साहब दे
बाँग रहे।
चैन बँधा कुत्ता आगे था,साहब पीछे भाग रहे।
जन्म मनुज का पाकर हैं वो,कुत्ते की सेवा करते।
मात पिता तरसें रोटी को,कुत्ते को दे साग रहे।
'ललित'
मुक्तक
16 14
चौथा प्रयास
समीक्षा हेतु
इश्क का भूत
इश्क बहुत महँगा है हमने,प्यार किया तब ये जाना।
रोज देखना पिक्चर विक्चर,मॉल उन्हें फिर ले जाना।
पिज्जा का भी शौक उन्हें है,होटल पाँच सितारा हो।
घबराकर अब छोड़ दिया है,उनकी गलियों में जाना।
'ललित'
मुक्तक
16 14
चौथा प्रयास
समीक्षा हेतु
पडोसन से होली
रंग भरी पिचकारी हमसे,हाय पड़ोसन ने छीनी।
रंग हमारा हम पर मारा,पहन रखी साड़ी झीनी।
हमने मग्गा भर पानी का,उनके ऊपर ज्यों डाला।
शर्माकर वो दुबक गई यों,नजरें नीची कर लीनी।
'ललित'
मुक्तक
16 14
छठा प्रयास
समीक्षा हेतु
होली या होला
होली है या होला यह तो,हम भी नहीं समझ पाये।
बाजारों का हाल हुआ जो,पत्नी को क्या बतलायें।
नोट भरा थैला ले जाकर,मुट्ठी में कुछ लाते हैं।
अब तो केवल पैठा लाकर,होली घर में मनवायें।
'ललित'
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