रोला छंद विधान

28.02.2020
********************************
     -------रोला छंद विधान-----
*******************************

रोला छंद

1. यह चार पंक्तियों अर्थात आठ चरणों वाला अर्द्धसम मात्रिक छंद है जिसकी प्रत्येक पंक्ति में 11,13  की यति से कुल चौबीस मात्राएँ होती हैं।

2. रोला छंद के 
विषम चरणों (1,3,5, और 7) में 11 मात्राएँ तथा 
सम चरणों (2,4,6और 8) में 13 मात्राएँ होती है।

3. रोला छंद में दो अथवा चार तुकांत समान होते हैं ।

4. सम चरणों का अंत 22/112/211/1111 के मात्रिक क्रम से ही होना अनिवार्य है ।

5. रोला छंद में यति पूर्व सदैव लघु वर्ण ही रखा जाता है और बेहतर लय के लिए अंत में हमेशा दो गुरू वर्ण होते हैं।

6. दोहे और रोला छंद में मात्राएँ बिलकुल विपरीत होती हैं।
 दोहा लेखन में 13,11=24 मात्रा भार रखते हैं जबकि रोला छंद में इसके विपरीत 11,13 =24 मात्रा भार रखना है किन्तु विपरीत होने पर भी रोला छंद का शिल्प दोहे से भिन्न है।

             **** उदाहरण ****

रोला छंद

चलते-चलते श्वास,कलम की जब भी रुकती।
ले शारद का नाम,कलम कागज पर झुकती।
लिख देती है पीर,कभी गहरे सागर की।और कभी दिल खोल,लिखे खुशियाँ गागर की।

**********रचनाकार*************
ललित किशोर 'ललित'
*******************************


गीतिका छंद विधान

********************************
     -------गीतिका छंद विधान-----
********************************

 गीतिका छंद का विधान ः

1. इसमें चार चरण होते हैं।
2. प्रत्येक चरण में 26 मात्रायें होती हैं।
3.14,12 मात्रा पर  यति दर्शायी जाती है।
2.इसमें 2/4 चरणों में समतुकांत मिलाए जाते हैं।

मापनीः
2122  2122 ,
2122  212

            **** उदाहरण ****

गीतिका छंद

नींद खुलते ही खुशी से मुस्कुरा भर दीजिए।
उस प्रभो को शुक्रिया फिर मुस्कुरा कर
दीजिए।
हे प्रभो धन-धान्य वैभव आपने मुझको दिया।
शांति-सुख-आनंद दे कर धन्य है मुझको किया।

**********रचनाकार*************
ललित किशोर 'ललित'
*******************************

दुर्मिल सवैया छंद विधान व उदाहरण

********************************
  -------दुर्मिल सवैया छंद विधान-----
********************************
      

1. यह एक वार्णिक छंद है।

2.इसमें चार चरण होते हैं।

3.चार समतुकांत रखे जाते हैं।

4.आठ सगण अर्थात्  
112 112 112 112 112 112 112 112

5.लघु लघु गूरू ×8

6.लय की सुगमता के लिए  12 वें वर्ण पर यति विधान..

7.क्योंकि यह एक वार्णिक छंद है अतः इसमें लघु के स्थान पर लघु व गुरू के स्थान पर गुरू ही रखना होता है।

~~~~~उदाहरण~~~~~

मन के तम को अब दूर करो,विनती करता कर जोड़ हरे।
इस जीवन में अब आस यही,कर दो मन की सब त्रास परे।
प्रभु आप अधार हो प्राणन के, जब होय कृपा हर ताप टरे।
हर लो अब घोर निशा तम को, मम जीवन में नव दीप जरे।


**********रचनाकार*************
ललित किशोर 'ललित'
*******************************



 

विविध


शक्ति छंद
मधुर रास

सितारों भरी चाँदनी रात में,बजी पायलें खूब बरसात में।
गरजते हुए बादलों के तले,मिले राधिका से कन्हैया गले

बजे बाँसुरी चूड़ियाँ भी बजें,हँसें गोपियाँ कृष्ण राधा सजें।
कन्हैया सुनाता नये राग वो,सुनें गोपियाँ तो खुले भाग वो

दसों ही दिशाएं लगी झूमने,धरा भी गगन को लगी चूमने।
सजे मोगरा वेणियों में जहाँ,कन्हैया बजाए मुरलिया वहाँ।

बसन्ती हवाएं छूएं गात को,थिरकने लगीं गोपियाँ रात को।
नथनियाँ हिलें हास के साथ में,कि झुमके हिलें रास के साथ में।

ललित

निश्चल छंद
छलिया घनश्याम

राधा जी की रूप माधुरी,ललित ललाम।
चकित नैन कनखी से निरखे,मनहर श्याम।

अँखियों ही अँखियों से पीता, माखन चोर।
राधा के नैनों की मदिरा,वो नित भोर।

ऐसा जादू करता छलिया,वो घनश्याम।
खिंची चली आती है राधा,सुबहो शाम।

गोप-गोपियाँ हँसी उड़ायें,दे दे ताल।
वो नटखट नैना मटकाए,चूमे गाल।

कैसे कैसे नाच नचाता,नटवर श्याम।
आत्मानंदी रास रचाता,वो निष्काम।

मधुर बाँसुरी से छेड़े कुछ,ऐसी तान।
आलौकिक मद से भर देता,सबके कान।

जादू की मुरली ले आया,माखन चोर।
बजा मधुर वंशी खींचे वोे,मन की डोर।

व्रज का छोरा बरसाने की,छोरी साथ।
जोरा-जोरी करे छुड़ाए,गोरी हाथ।

सिंहावलोकन घनाक्षरी

प्रार्थना

थक गये अब नाथ,
नैया खेते मेरे हाथ।
आप ही सँभालो अब,
पतवार नाव की।

पतवार नाव की लो.
थाम करकमलों में।
झलक दिखादो जरा,
दयालु स्वभाव की।

दयालु स्वभाव की वो,
छवि तारणहार की।
दवा आज दे दो प्रभु,
मेरे हर घाव की।

मेरे हर घाव की वो,
दवा श्याम नाम की जो।
लगन लगा दो तव,
चरणों में चाव की।

ललित

गीतिका छंद

बेटियाँ

प्यार की हर इक कसौटी,पर खरी वो बेटियाँ।
तात-माता की दुलारी,हैं परी वो बेटियाँ।
हौसला दामन छुड़ाए,माँ-पिता का जब कभी।
बेटियाँ देती सहारा,हौसला रख कर तभी।

'ललित'

लावणी मुक्तक

मैं क्या जानूँ

बात कहूँ मैं अपने दिल की,औरों की मैं क्या जानूँ।

फूलों में जजबात नहीं हैं,भौंरों की मैं क्या जानूँ।
प्यार बिके अरमान बिकें हैं,आज यहाँ सब कुछ बिकता।
झरनों में आवाज नहीं है,धौरों की मैं क्या जानूँ।
'ललित'

ताटंक मुक्तक

किरचें

टूटे सपनों की कुछ किरचें,बाकी हैं अब झोली में।
कैसे कैसे रंग दिखे हैं,सपनों की इस होली में।
स्वप्न सुनहरे खो देते हैं,कब क्यूँ अपने रंगों को?
बेरंगा मन बैठा रहता,क्यूँ सपनों की डोली में?

मुक्तक
माँ 

क्यूँ होता है अक्सर ऐसा,माँ छुप-छुप कर रोती है?
बेटा नजरें फेर रहा क्यूँ,सोच दुखी वो होती है।
माँ के अरमानों का सूरज,दिन में क्यूँ ढल जाता है?
एक अँधेरे कोने में वो,बेबस सी क्यूँ  सोती है?

ताटंक छंद

नई धुनें

नये वर्ष में नयी धुनों पर,मुरली श्याम बजा देना।
मेरे अधरों पर मंगलमय,नित नव गीत सजा देना।
मनमंदिर में मूरत तेरी,संग राधिका प्यारी हो।
दिन तो दिन है कान्हा मेरी,नहीं रात भी कारी हो।
'ललित'

कुकुभ मुक्तक

पुष्प

पुष्प बहुत ऐसे देखे हैं,काँटों में जोें पलते हैं।
चुभन सहें कंटक की फिर भी,मुस्कानों में ढलते हैं।
सौरभ उनकी चहुँ दिशि फैले,काँटे बेबस रह जाते।
कंटक चुभ-चुभ थक जाते हैं,दिल ही दिल में जलते हैं।

ललित


कुकुभ मुक्तक

फूल और कााँँटे

फूल और काँटों का रिश्ता,मानव नहीं समझ पाये।
पुष्पों की रक्षा करते ये,काँटे ही हरदम आये।
कंटक से फूलों की शोभा,आजीवन हमदम काँटे।
काँटों में जो फूल खिले वो,कहीं न फिर ठोकर खाये।
ललित

मुक्तक

पहरेदारी


काँटों की पहरेदारी में,फूल सुगंधित खिलते हैं।
प्यार करें कंटक फूलों से,रोज गले वो मिलते हैं।
दुश्मन के हाथों में चुभकर,शूल पुष्प को सहलाएं।
वो कंटक बदनाम हुए जो,दिल के टुकड़े सिलते हैं।

ललित

कुकुभ मुक्तक


प्रेम भरा हो दिल में जितना,उतना ही वो छलकेगा।
नैन झरोखे से वो शीतल,मोती बनकर ढलकेगा।
जिसके सीने में नाजुक सा,प्यार भरा इक दिल होगा।
उसकी उठती गिरती पलकों,में हरदम वो झलकेगा।
ललित

रोला छंद
गीत

दिल के रिसते घाव

दिल के रिसते घाव,छिपाकर जग में डोलो।
अपने मन की पीर,किसी से कभी न बोलो।

देखे सुंदर मीत,देख ली प्रीत अनोखी।
केवल अपनी जीत,लगे है सबको चोखी।
जब भी बोलो बात,जरा मन ही मन तोलो।
अपने मन की पीर,किसी से कभी न बोलो।

झूठा ये संसार,यहाँ की रस्में झूठी।
जो होता गमगीन,उसी से रहती रूठी।
पी लो गम के घूँट,मगर तुम मुँह मत खोलो।
अपने मन की पीर,किसी से कभी न बोलो।

दुनिया की है रीत,किसी के साथ न रोये।
हँसी उड़ाये और,राह में काँटे बोये।
जपलो हरि का नाम,पाप खुद अपने धोलो।
अपने मन की पीर,किसी से कभी न बोलो।

भगवन दयानिधान,उन्हीं से विनती करलो।
हरि को अपना मान,शीश चरणों में धरलो।
तर जाएगी नाव,प्रभू के आगे रो लो।
अपने मन की पीर,किसी से कभी न बोलो।

ललित

रोलाछंद

गीत

दे देते हैं घाव

दे देते हैं घाव,कभी कुछ अपने जन भी।

और कुरेदे घाव,निगोड़ा मानव मन भी।

जिस पर है विश्वास,वही दिल को तोड़ेगा।
जो है अपना खास,वही फिर मुख मोड़ेगा।
सहलाता है घाव,नहीं शीतल सावन भी।
और कुरेदे घाव,निगोड़ा मानव मन भी।

जो होता फनकार,यशस्वी वो हो जाता।
दुनिया भर का प्यार,उसे फन है दिलवाता।
दिल के गहरे घाव,नही भर पाता फन भी।
और कुरेदे घाव,निगोड़ा मानव मन भी।

ईश्वर से विश्वास,कभी यूँ ही उठ जाता।
जिसकी टूटी आस,नहीं फिर वो उठ पाता।
भर देता है घाव,कभी जानी दुश्मन भी।
और कुरेदे घाव,निगोड़ा मानव मन भी।

जीवन भर तो साथ,नहीं तन भी दे पाता।
विषम रोग में साथ,नहीं धन भी दे पाता।
भरें उसी के घाव,करे जो यहाँ भजन भी।
और कुरेदे घाव,निगोड़ा मानव मन भी।

दे देते हैं घाव,कभी कुछ अपने जन भी।
और कुरेदे घाव,निगोड़ा मानव मन भी।

'ललित'

मनोरम छंद
वृद्धावस्था/बुजुर्गी

आँसुओं से तरबतर

आँसुओं से तर बतर था,एक बेबस वृद्ध नर था।
देह जर्जर हो गई थी,वासना भी सो गई थी।

प्यार की प्यासी निगाहें,जो खुली रहना न चाहें।
हर तरफ पसरी उदासी,दे खुशी क्यों कर जरा सी।

याद आती है जवानी,जब नसों में थी रवानी।
पाल बच्चों को लिया था,दो जहाँ का सुख दिया था।

बन गये लायक सभी वो,सुख न दे पाए कभी वो।
व्यस्त सब बच्चे हुए हैं,कान के कच्चे हुए हैं।

स्वप्न सब बिखरे सुनहरे,होगए हैं पूत बहरे।
दर्द में डूबी निगाहें,कण्ठ से निकलें कराहें।

जिन्दगी की क्या कला है?ये बुजुर्गी क्या बला है?
जान जीवन भर न पाया,बालकों ने जो दिखाया।

देह में रमता रहा था,नेह में जीवन बहा था।
स्वार्थमय जीवन जिया था,याद कब रब को किया था।

आज रब है याद आता,भूल इक पल वो न पाता।
या खुदा अब तो रहम कर,दु:ख दारुण ये खतम कर।

प्यार जो उसने दिया था,त्याग जो उसने किया था
काश बच्चे जान पाते,दर्द को पहचान पाते।

नेह से नजरें मिलाकर,दीप आशा का जलाकर।
घाव पर मरहम लगाते,बोल मीठे बोल जाते।

ललित

राधा कृष्ण

सार छंंद

प्रीत

प्रीत हुई कान्हा से ऐसी,राधा सुधबुध भूले।
देख अधर से लगी बाँसुरी,नथुने उसके फूले।
सौतन ये वंशी मोहन के,अधरों को क्यूँ चूमे?
कैसे पुण्य किये मुरली ने,श्याम संग जो झूमे?

ललित
सार छंद
पाती

मोहन से क्यूँ नैन मिलाए,राधा अब पछताती।
देश छोड़ परदेश बसा जो,लिखे न कोई पाती।
वन उपवन सब सूने लगते,श्याम बिना ब्रज सूना।
सखियाँ जब ताने मारें तो,दर्द बढे ये दूना।

'ललित

सार छंद
मीठी-मीठी बातेंं

मीठी मीठी बातें कर जो,राधा को बहलाए।
हर गोपी के साथ श्याम वो,नित ही रास रचाए।
नटखट कान्हा राधा के उर,में जाकर छुप जाए।
राधा वन-उपवन में ढूँढे,मोहन नजर न आए।

'ललित'


सार छंद
नटवर नागर

मोहन कान्हा श्याम साँवरा,नटवर नागर तू ही।
वृन्दावन का कृष्ण कन्हैया,रस का सागर तू ही।
रस सागर तू  प्रेम पाश में,मुझको अपने ले ले।
कहे राधिका बदले में तू,सारे सपने ले ले।

'ललित'
सार छंद
अधरामृत

कान्हा वंशी मुझे बना तू,अधरामृत बरसा दे।
कहे राधिका मत ऐ मोहन ,मुझको यूँ तरसा दे।
याद करूँ आलिंगन तेरा,सुधबुध मैं बिसराऊँ।
लगकर तेरे सीने से मैं,तुझ में ही खो जाऊँ।

ललित

सार छंद
पछतावा

मोहन से क्यूँ नैन मिलाए,राधा अब पछताती।
देश छोड़ परदेश बसा जो,लिखे न कोई पाती।
वन उपवन सब सूने लगते,श्याम बिना ब्रज सूना।
सखियाँ जब ताने मारें तो,दर्द बढे ये दूना।
पत्थर दिल बन बैठा कान्हा,तू तो मथुरा जा के।
रख ले अपनी राधा का दिल,एक बार तो आ के।
तेरी यादों में पागल हो,राधा वन-वन डोले।
आजा कान्हा आजा अब तो,व्रज का कण-कण बोले।

'ललित'

सितम्बर 2019 की रचनाएँ

सितम्बर 2019 की रचनाएँ

3.9.19
समान/सनाई छंद
मोहन

कितना सुंदर है तू मोहन,कितनी प्यारी मूरत तेरी?
राधा के चंचल नैनों में,दिखती है क्यूँ सूरत तेरी?
मोरपंख जो सिर पर धारा,उसने क्या-क्या पुण्य किए थे?
क्यों उस बाँसुरिया ने तेरे,अधरामृत के घूँट पिए थे?

ललित

समान/सनाई छंद
नंदन-वन

एक बार सपनों में आकर,कान्हा मुरली मधुर बजा दे।
नंदन-वन गोकुल सी प्यारी,स्वप्न नगरिया श्याम सजा दे।
सपनों में भी दर्शन तेरे,मिल जाएँ तो मैं तर जाऊँ।
तेरी मुरली की धुन पर मैं,नाच-नाच कर तुझे नचाऊँ।

ललित

समान/सनाई छंद
सुदामा

कृष्ण तुम्हारे दर्शन करने,इक भक्त द्वार पर है आया।
फटे वस्त्र तन पर लिपटाए,नाम सुदामा है बतलाया।
चंदन तिलक भाल पर उसके,अजब तेज से मुख दमके है।
कृशकाया है लेकिन उसका,रोम-रोम अद्भुत चमके है।

ललित

समान/सनाई छंद
सैल्फी मुर्दे की

देख रहा था बेसुध मुर्दा,ज़िन्दा लोगों की नादानी।
अंतिम सेल्फी खिंचवाने की,उसने भी थी मन में ठानी।
यमदूतों से लेकर आज्ञा,हँसा ज़ोर से वो कुछ ऐसे।
भाग लिए सैल्फी दीवाने,भूत निकल आया हो जैसे।

ललित

दोहा

अँधियारे पथ में गुरू,थामे जिसका हाथ।
कई और को शिष्य वो,तारे अपने साथ।

ललित

समान/सनाई छंद
कोरी चुनरी

कोरी चुनरी दी थी तूने,मैंने भव-रँग में रँग
डाली।
काम-क्रोध-मद-लोभ भरी ये,चुनरी बाहर भीतर काली।

बदरँग चुनरी लेकर कान्हा,आया हूँ मैं तेरे द्वारे।
ऐसे रँग में रँग दे इसको,जो भव-सागर पार उतारे।

ललित

समान/सनाई छंद
झोली

मंदिर की मूरत में बैठा,कान्हा जब तू मुस्काता है।
प्यार भरा इक निर्झर तेरे,नैनों से छलका जाता है।
मन करता है रहूँ देखता,अपलक नैनों से छवि तेरी।
जब तक तेरी दया-दृष्टि से,भरे न कान्हा झोली मेरी।

ललित
11.9.19

त्रिभंगी छंद
बाँका ग्वाला

बाँसुरिया वाले,निपट निराले,बाँके ग्वाले,
ओ प्यारे।
वो मुरली प्यारी,सब दुखहारी,धुन में न्यारी,सुनवा रे।
सुनने को व्याकुल,सारा गोकुल,यमुना- संकुल,है आया ।
मुरली जब बोले,रस यूँ घोले,नैन न खोले,
यह काया।

ललित

त्रिभंगी छंद
टिम-टिम तारे

टिम-टिम-टिम तारे,करें इशारे,मुन्ना प्यारे,
चुप हो जा।

चम-चम-चम प्यारा,चंदा न्यारा,मामा कहता,तू सो जा।

रूई सी गोरी,चंद्र-चकोरी,आयी दौड़ी,
मुन्ना रे।

मैया मुस्काती,लोरी गाती,मुन्ना प्यारे,सुनना रे।

ललित

दोहा

दिल टूटा जुड़ता नहीं,कर लो यत्न हजार।
अपनों का या गैर का,दिल मत तोड़ो यार।

ललित

त्रिभंगी छंद
जीवन-नैया

ये जीवन-नैया,ता-ता-थैया,करती भैया,डोल रही।
तुम हँस लो गा लो,दर्द भगा लो,खुशी मना लो,बोल रही।

गम में मत झूलो,चिंता भूलो,मंजिल छू लो,मन चाही।
ये राह निराली,देखी-भाली,जीवट वाली,ओ राही।

ललित

त्रिभंगी छंद
कान्हा काला

वो कान्हा काला,नँद का लाला,मुरली वाला,चोर बड़ा।
चुपके से आया,माखन खाया,मुख लिपटाया,फोड़ घड़ा।

कान्हा यमुना-तट,सूने पनघट,राधा का घट,फोड़ गया।
वो तेज हिरण सा,चंचल मन सा,तेज पवन सा,दौड़ गया।

ललित

रजनी छंद
2122 2122,2122 2
दो दो तुकांत



रजनी छंद
ज़िंदादिली

ज़िंदगी ज़िंदादिली का,नाम ही तो है।
है ग़मों से जो भरा वो,जाम ही तो है।
प्यार से जो आदमी इस,जाम को पीता।
हो न उसका जाम खुशियों,से कभी रीता।
ललित

रजनी छंद
खुशबू

फूल से खुशबू चुराना,सीखलो प्यारे।
चाँदनी से मुस्कुराना,सीखलो प्यारे।
पुष्प सौरभ का खजाना,जानती दुनिया।
चाँदनी गाती तराना,जानती दुनिया।

ललित

रजनी छंद
चाँदनी

चाँद सा महबूब पाकर,चाँदनी चहकी।
प्यार में मदहोश होकर,चाल भी बहकी।

बादलों में छुप गया जब, चाँद सजनी का।
चाँँदनी भी त्याग बैठी,साथ रजनी का।

ललित

छंद रजनी
श्याम-सुंदर

श्याम सुंदर साँवरे मन,मोहना प्यारे।
स्वप्न में ही दर्श देने,श्याम आ जा रे।

नैन में भर लूँ सलोनी,साँवरी सूरत।
लूँ बसा दिल में कन्हैया,मोहनी मूरत।

ललित 

गीतिका छंद
समय

भागता जाता समय है,एक पल रुकता नहीं।
सिर झुका देता उसी का,जो कभी झुकता नहीं।
चाहता यदि तू समय ये,साथ दे तेरा खरा।
तो समय के साथ चल ले,पथ बदल कर तू जरा। 

ललित

छंद रजनी
समंदर

प्यार का प्यासा समंदर,हाय खारा क्यों?
हर नदी ने दिल उसी पर,आज वारा क्यों?

पा समंदर का सहारा,हर नदी झूमे।
बन समंदर की लहर वो,आसमाँ चूमे।

ललित

छंद रजनी
अम्बिका

अम्बिका जगदम्बिका माँ,लाल मैं तेरा।
थाम ले इस भँवर में माँ,हाथ तू मेरा ।
है घटा घन घोर छाई,दुःख की काली।
द्वार पर तेरे खड़ा मैं,हाथ हैं खाली।

ललित



श्रृंगार छंद विधान व उदाहरण

*******************************

    **** श्रृंगार छंद विधान****

********************************

1. यह एक मात्रिक छंद है ।

2. इसके प्रत्येक चरण में कुल 32 मात्राएँ होती हैं तथा 16,16 मात्राओं पर यति चिन्ह होता है।

3. चरण कि अंत सदैव गुरु लघु वर्ण से होता है।

4. चार पँक्तियाँ चार चरण होते हैं।

5 दो - दो अथवा चार पंक्तियों में समतुकांत मिलाए जाते हैं।

       ***उदाहरण***

श्रृंगार छंद

बाग से चुन-कर सुंदर फूल।
कन्हैया आए यमुना कूल।
बना कर मधुर मनोहर हार।
किया राधा जी का श्रृंगार।

प्यार का गजरा पहन अनूप।
खिला राधा जी का रँग-रूप।
अलौकिक सौरभ से भरपूर।
राधिका की वेणी का नूर।

****रचनाकार****
ललित किशोर 'ललित'

मदिरा सवैया छंद विधान व उदाहरण

*****************************
*** मदिरा सवैया छंद विधान ***
*****************************
मदिरा सवैया छंद का विधान व उदाहरण निम्न लिखित है...

1.यह एक वार्णिक छंद है 

2.इस छंद की हर पंक्ति में 7 भगण तथा अंत में एक गुरु वर्ण होता है।

जैसेः-गुरु लघु लघु ×7 + गुरु वर्ण।

3. इसमें चार पंक्तिया तथा चार सम तुकांत होते हैं।

4.लय की सुगमता के लिए हर पंक्ति के 12 वें वर्ण पर यति चिन्ह दर्शाएँ।

5.क्योंकि यह वर्णिक छंद है इसलिए
इसमें लघु के स्थान पर लघु और गुरु के स्थान पर गुरु वर्ण ही आना चाहिए ।
दो लघु वर्णों की गणना एक गुरु वर्ण के रूप में नहीं कर सकते।

**** उदाहरण****

मदिरा सवैया

रे मन! मानव जीवन दे कर,धन्य किया प्रभु से कहना।
तू मनमोहन केशव माधव,कृष्ण सदा जपते रहना।
कृष्ण हँसे बिन बात अहर्निश,सीख जरा उससे सहना।
तू मनमंदिर में नित जाकर,ध्यान समुंदर में बहना।

**रचनाकार**
************************************
ललित किशोर 'ललित'
************************************


अगस्त 2019 की रचनाएँ

अगस्त 19

चौपाई
तन-मन-धन

बड़ा लालची मानव मन है,
हर रिश्ते में खोजे धन है।

ईश्वर को भी धन दिखलाए,
हरि को भी देना सिखलाए।

तन करता धन का  साधन है,
मन काला और गोरा तन है।

नहीं मिले जब मनचाहा धन।
बिदक-बिदक जाता है ये मन।

धनवानों को सब ही पूजें।
देख रंक को मुखड़े सूजें।

धन ने रिश्तों को बिसराया।
मन मानव का समझ न पाया।

दोहा

तन-मन-धन का खेल ये,मानव समझ न पाय।
धन के पीछे मन चले,और चले तन हाय।

ललित

कुण्डलिनी छंद
माया

इतनी उलझी डोर में,माया की भगवान।
क्यों बाँधा तूने बता,भोला ये इंसान?
भोला ये इंसान,डोर में ऐसा उलझे।
खूब लगाए जोर,नहीं फिर भी वो सुलझे।

ललित

मुक्तक 16-12
हमसफर

कुछ दूर तक तो साथ मेरे,चल जरा ओ हमसफर।
ये ज़िन्दगी है खूब छोटी,खूबसूरत है डगर।
मंजिल तलक चलती रहेंगी,प्यार की पुरवाइयाँ।
हर राह की तन्हाइयों में,साथ होगा तू अगर।

ललित

चौपाइयाँ
दिल की धड़कन

दिल की धड़कन क्या कहती है?
मन को ये चिन्ता रहती है।

क्या दिल में ममता रहती है?
या थोड़ी समता रहती है?

क्या छुप-छुप कर रोता है दिल?
या गम ओढ़े सोता है दिल?

क्या खुशियों में दिल हँसता है?
या आशा में वो  फँसता है?

क्या भूखा ही रहता है दिल?
या सूखा ही रहता है दिल?

दिल करता मन से विनती है।
क्या दिल की भी कुछ गिनती है?

दोहा

दिल गूँगा-बहरा नहीं,और न ये पाषाण।
दिल से ही इंसान है,दिल में ही हैं प्राण।

ललित



.4.08.19
चौपाइयाँ
दिल

दिल अक्सर चुप ही है रहता।
सारे ग़म खुद ही है सहता।

खुशियाँ सबसे साझा करता।
ग़म अपनी झोली में भरता।

ललित

 पीयूष वर्ष छंद
श्याम सुंदर

श्याम सुंदर साँवरे मुरलीधरा।
घूम ले कश्मीर तू भी अब ज़रा।
घाटियों में बाँसुरी कुछ यूँ बजा।
आसमाँ छूने लगे भारत-ध्वजा।

'ललित'


पीयूष वर्ष छंद
प्रीत

प्रीत में भीगा हुआ सावन जगा।
प्यार दिल में दस्तकें देने लगा।
गूँजती शहनाइयाँ ले आइए।
कुछ फुहारें प्यार की दे जाइए।

ललित

पीयूष वर्ष छंद
तीन सौ सत्तर

तीन सौ सत्तर हटा ऐसे दिया।
आसमाँ में छेद कर जैसे दिया
दानवों से मुक्त कर कश्मीर को।
है सँवारा हिंद की तकदीर को।

ललित

गीतिका छंद
वादियाँ

वादियों में फूल महके,राह निष्कंटक बनी।
खिल उठे मुख हैं सभी के,और दीवाली मनी।
चाँद मुस्काने लगा है, आसमाँ भी हँस रहा।
दुश्मनों का प्राण मानो,हलक में है फँस रहा।

 ललित


गीतिका छंद
ज़िंदगी का कारवाँ

ज़िंदगी के कारवाँ में प्यार की बरसात हो।

खूबसूरत ज़िन्दगी हो प्रीत की सौगात हो।

द्वार से ही लौट जाए दुःख उल्टे पाँव से।

ज़िंदगी शीतल रहे हरदम सुखों की छाँव से।

ललित

पीयूष वर्ष छंद
कश्मीर

हिंद का सरताज जो कश्मीर है।
वो सदा से हिंद की जागीर है।
नींद से अब जाग तू इमरान जा।
हिंद का कश्मीर है ये मान जा

क्या हुआ मायूस तू क्यों होगया?
तीन सौ सत्तर हवा जो हो गया।
डाल मत कश्मीर पर गंदी नज़र।
है हमें आतंक का कुछ भी न डर।

ललित

पीयूष वर्ष छंद
बाँसुरी

बाँसुरी थी क्यों बजाई साँवरे?
छोड़ना था जब तुझे व्रज-गाँव रे।
गोपियों सँग रास भी था क्यों रचा?
राधिका को क्यों रहा था तू नचा?

ललित

पीयूष वर्ष छंद
बदरा

झूम कर बरसो बदरवा साँवरे।
नीर का प्यासा हमारा गाँव रे।
सुन जरा प्यासी धरा की सिसकियाँ।
प्यास से रोती धरा की हिचकियाँ।

ललित

दोहा

नौटंकी करते रहे,इतने दिन तक आप।
क्या अब तक लेते रहे,गहराई का नाप?

ललित

पीयूष वर्ष छंद
राधिका की प्रीत

राधिका की प्रीत ऐसी श्याम से।
राह में आँखें बिछाए शाम से।
श्याम जब आए चमन दिल का खिले।
माधुरी मुस्कान अधरों पर मिले।

ललित

पीयूष वर्ष छंद
गीत

राधिका की प्रीत ऐसी श्याम से।
राह में आँखें बिछाए शाम से।
प्रीत राधा कृष्ण की यों पावनी।
शांत शीतल ज्यों फुहारें सावनी।
रात-रानी सी महक उठती वहाँ।
श्याम राधा का मिलन होता जहाँ।


श्याम जब आए चमन दिल का खिले।
माधुरी मुस्कान अधरों पर मिले।
हर लता खुश हो हवा में झूमती।
चाँदनी निर्मल धरा को चूमती।
चाँद भी कुछ पल ठहर जाता वहाँ।
श्याम राधा का मिलन होता जहाँ।


बाँसुरी छूती अधर जब श्याम के।
गूँजते हैं सुर हृदय विश्राम के।
बंद हों जब नैन राधा के चपल।
दल-दलों में खिल उठें सुंदर कमल।
देवता सब देखते नभ से वहाँ।
श्याम राधा का मिलन होता जहाँ।

ललित

मुक्तक
राधा

बनी घनश्याम की छाया,बिरज में घूमती 
है वो।
सुरीली बाँसुरी की धुन,सुने तो झूमती है वो।
बड़ी चंचल बड़ी भोली,दिवानी श्याम की राधा।
चिढ़े वो जिस मुरलिया से,उसी को चूमती है वो।

ललित

मुक्तक 14-14
फुहारें

फुहारें छू रही तन को,अगन में झोंकती मन को।
हवा शीतल सुहानी ये,बढ़ाती और उलझन को।
करे कल-कल नदी ऐसे,नवेली ज्यों चले छम-छम।
चले आओ सजन जल्दी,करो रंगीन सावन को।

ललित

मुक्तक 14-14
सितारे

सितारों की टिमा-टिम से,यहाँ रंगीन हैं रातें।
रजत से चाँदनी-चंदा,करें गुप-गुप मुलाकातें।
हिले वो चाँद सरवर में,चँदनिया गुन-गुनाती है।
नदी के कूल पर सजनी,करें हम प्यार की बातें।

ललित


छंद सिंधु
1222 1222 1222
दो दो समतुकांत

19.08.19
छंद सिंधु
धुन

न जाने कौन सी धुन पर थिरकता मन?
नई नित चाहतों में ये सरकता मन।

बसे मद-मोह-माया लोभ हर रग में।
न मन वश में किया तो क्या किया जग में?
ललित

छंद सिंधु
सुख-दुख

बिना दुख के किसे सुख है यहाँ मिलता?
बिना कंटक चुभे गुल है कहाँ खिलता?
निराला है यहाँ पर भाग्य का लेखा।
परिश्रम से बदलता भाग्य भी देखा।

ललित

छंद सिंधु
बहारें

बहारों का रहे मौसम सदा प्यारा।
तुम्हारी ज़िन्दगी में ग़म न हो याराँ।
मिले हर भोर ताजा इक खुशी तुमको।
भुला लेकिन न देना तुम कभी हमको।

ललित


छंद सिंधु
राधा


दिवानी श्याम की ऐसी  हुई  राधा।
लुभाए साँवरा रँग और भी ज़्यादा।
निगाहें खोजती हर-पल कन्हैया को।
बजैया  बाँसुरी के,गौ-चरैया को।

ललित
 


कहीं की ईंट कहीं का रोड़ा
भानमती ने कुनबा जोड़ा।
वही बना अब जानी-दुश्मन
जोड़ा था जो थोड़ा-थोड़ा।


महाश्रृंगार छंद
मुरलीधर

सुना है मुरलीधर घनश्याम,बजाता मुरली तू हर भोर।
सुने जो उस वंशी की तान,वही हो जाता
भाव विभोर।
मोरपंखी है तेरा ताज,और तू चोरों का सिरमौर।
चुराता है माखन हर रोज,मचाता है गलियों में शोर।

ललित

पंचचामर छंद
खुशी

कभी मिले खुशी कभी पहाड़ दुःख के मिले।
कभी बहार तो कभी न एक भी कली खिले।
हसीन मोड़ ज़िन्दगी कभी दिखा गई हमें।
कभी हज़ार ठोकरें मज़ा चखा गईं हमें।

ललित

पंचचामर छंद
सुता

सुता मिली नसीब से न हो दुलार की कमी।
गले लगा रखो  उसे रहे न प्यार की 
कमी।
पढ़ा-लिखा करो जवाँ छुए न आसमान क्यों?
जहाँ सुता पले वहाँ बढ़े न आन-बान क्यों?

ललित

पंचचामर छंद
राम नाम

लिया न नाम राम का जपा न श्याम नाम ही।
न लोभ-मोह से बचा भुला सका न काम ही।
हसीन जिंदगी जिया किए न पुण्य दान ही।
चला गया जहान से बचा सका न प्राण ही।

ललित

पंचचामर छंद
श्याम

बजा रहा न बाँसुरी न एक कौर खा रहा।
न नंद-लाल ग्वाल-बाल-धेनु संग जा रहा।
न खेलता न कूदता न धूम वो मचा रहा।
कि राधिका बिना न श्याम गोपियाँ नचा रहा।

ललित

पंचचामर
देशभक्ति

खिलें वहाँ हजार फूल फौज हिंद की जहाँ।
करे हजार शूल चूर्ण फौज हिंद की वहाँ।
उठा सके न आँख शत्रु देख हिंद के जवाँ।
हरेक जंग के लिए जवान हिंद के रवाँ।

ललित
कुण्डलिनी छंद
कनटोप

कमर-बेल्ट बाँधे हुए,माथ धरे कनटोप।
नहीं चले तो दस गुना,जुर्माना तू सौंप।

जुर्माना तू सौंप,भले टूटी हैं सड़कें।
साँड लड़ें हर ओर,करम-फूटी हैं सड़कें।

ललित


शक्ति छंद विधान व उदाहरण

********************************
       ***शक्ति छंद विधान***
********************************

1.यह  चार पंक्तियों वाला मात्रिक छंद है।

2.इसके हर चरण  में 18 मात्राएँ होती हैं
तथा चरणांत 12 अर्थात ( लघु, गुरु ) से किया जाता है।

3.दो-दो पंक्तियों में तुकांन्त सुमेलित किए जाते हैं।

4.    10, 8 मात्राओं पर यति ...

     ** मापनी **

122 122, 122 12 

   ****उदाहरण ****

लताएं बनी प्रेम की प्यालियाँ।
पियें प्यार से वृक्ष की डालियाँ

नशीली हुई आज पुरवाइयाँ।
बजें कान में शोख शहनाइयाँ।

**रचनाकार**

ललित किशोर 'ललित'


जुलाई 19 की रचनाएँ


जुलाई 19

ताटंक छंद
माँ
सबसे प्यारी सबसे न्यारी,दुनिया में है होती माँ।
संतानों के जीवन में है,बीज सुखों के बोती माँ।
नित लें जो आशीष मात का,छू कर माँ के पैरों को।
धूल चटा देते हैं वो नर,अच्छे-अच्छे शेरों को।

ललित

रूबाई

छंदों की रानी रूबाई,लिखने बैठे हम भाई।
रचनाएँ सारे मित्रों की,सुंदर बहुत नज़र आईं।
नया विषय अनछुआ चुनें क्या,सोच रहे थे
हम बैठे।
गरमा-गरम पकौड़ों के सँग,आई वो लेकर चाई।

ललित

रुबाई छंद


अखियों पर नारंगी चश्मा,छतरी थी सिर पर प्यारी।
नारी सुलभ नहीं थी लज्जा,भाव-भंगिमा असुरारी।
बाल कटे सैंडल ऊँचे थे,जींस-टॉप तन चिपके से।
चंदन की सौरभ में लिपटी,क्या थी वो सुंदर नारी?
 ललित

रुबाई 


सुंदर फूल खिले बगिया में,झूमे मन ही मन माली।
रात-रात भर जाग-जाग कर,की थी उसने रखवाली।
जग में सौरभ फैलाएँगें,सुमन सदा इस बगिया के।
यही सोच कर मुस्काता है,हाथ रह गए अब खाली।

ललित

रुबाई

बात कहो जब अपने मन की,उसकी भी लो सुन थोड़ी।
जिसने अपनी बात आपका, मूड देख मन रख छोड़ी।
हँसी-खुशी-विश्वास-प्रेम से,रिश्तों में रस भर जाए।
होता सफल वही है जिसने,राह समय के सँग मोड़ी।

ललित

रुबाई छंद

रहा देखता स्वप्न सुनहरे,अब तक तो हर पल प्यारे।
जाग नींद से भोर हुई अब,छोड़ रहे अम्बर तारे।
शाम रँगीली करनी हो तो, सुबहा में तू 
हँस ले रे।
सपनों में रँग भरने हों तो,कर्मों में रँग भर
जा रे।

 ललित

शक्ति छंद
122 122,122 12

दिखे खूबसूरत उसे ज़िंदगी।
करे श्याम की जो सदा बंदगी। 
न बाधा कभी राह में आ सके।
धरे ध्यान जो श्याम को पा सके।

ललित

शक्ति छंद

न माखन भला आज क्यों खा रहा?
न गैया चराने लला जा रहा।
कहे माँ यशोदा कन्हैया बता।
रहा मात को क्यों लला तू सता?

नई बाँसुरी ये अधर से लगा।
बजा कर दिलों में उमंगें जगा।
सखा-ग्वाल सब ले रहे चुटकियाँ।
दिला श्याम माखन भरी मटकियाँ।

ललित

शक्ति छंद

नहीं ज़िंदगी से मुझे कुछ गिला।
मिला है किए कर्म का ही सिला।
नहीं है कमी कुछ मिला खूब है।
अजी कर्म का ये सिला खूब है।

ललित

शक्ति छंद

छिपी ये दुआ मात के प्यार में।
न संतान उलझे कभी खार में।
दुआ मात की जिस सुता को मिले।
सदा छू सके वो नई मंजिलें।

ललित

शक्ति छंद

कन्हैया ज़रा अर्ज सुन भक्त की।
मिटा दे निशानी बुरे वक्त की।
ज़रा देख ले इक नज़र भक्त को।
बुला दे इसी पल भले वक्त को।

ललित

मुक्तक

कुछ बूँदें बरसा कर मेघा,चले गए तुम और कहीं।
क्या तुमको भायी कोटा से,सुंदर कोई ठौर कहीं?
ताल-तलैया-पोखर-नदिया,धरती का हर-कण प्यासा।
क्या तुमको भटका बैठे हैं,सुंदर-सुंदर मोर कहीं?

ललित

शक्ति छंद

मधुर राग में बाँसुरी बज रही।
मधुर रात है राधिका सज रही।
गरजते हुए बादलों के तले।
मिले राधिका से कन्हैया गले।

ललित

शक्ति छंद

चलो आज सपने सुहाने बुनें।
नई गीत गाएँ पुराने सुनें।
नई मंजिलों के नई राह को।
चुनें मुस्कुराकर नई चाह को।

ललित

शक्ति छंद

बरसने लगे मेघ यूँ झूम कर।
तरसती धरा के अधर चूम कर।
लिए मस्त सौरभ हवा आ रही।
तटों से सटी हर लहर जा रही।

ललित

शक्ति छंद

नदी ताल झरने न दिखते जहाँ।
कलमकार कविता न लिखते वहाँ।
वनों पादपों की कमी से दुखी।
कलमकार कब हो सके है सुखी?

ललित

15.07.19
दोधक छंद
211 211 211 22
वार्णिक छंद

निष्ठुर ओ बदरा अब आजा
हर्ष भरी बुँदियाँ बरसा जा।

नीर फुहार मिले बदरों की।
प्यास बुझे मन की अधरों की।

ललित
दोधक छंद

जीवन की बस एक कहानी।
भूल करे नर ये अभिमानी।
पत्थर में भगवान तलाशे।
मन्दिर सा मन क्यों न तराशे?

ध्यान जरा मन में कर ले जो।
कृष्ण-कथा मन में भर ले जो।
श्याम-प्रभो दुख-ताप हरेंगें।
राह दिखा भव-पार करेंगें।

ललित

दोधक छंद

छोड़ गये व्रज को तुम ऐसे।
प्राण गए तन को तज जैसे।
वो वृषभानसुता बिसराई।
श्याम रही बन जो परछाई।

ये यमुना-तट राह निहारें।
गोप-सखा सब मीत पुकारें।
माखन के घट भूल गए क्या?
भा मथुरा के फूल गए क्या?

ललित

आल्हा छंद
आदरणीय राकेश जी को सादर समर्पित

आज गुरू चरणो में मेरा,नमस्कार है बारम्बार।
छंद और लय ज्ञान दिया है,और दिया है बेहद प्यार।
शब्दों का संयोजन सीखा,उनसे ही है मैंने आज।
छंदों की रचना में खोया,भरता हूँ मैं नित परवाज

गुरू देव की इच्छा में ही,मिल जाती है
जिनकी चाह।
ऊँची फिर परवाज भरें वो,और सुगम हो जाती राह।
नियमों का पालन करने से,लेखन पाता और निखार।
माँ शारद को हैं वो प्यारे,जो नर करें गुरू से प्यार।

गुरू रूप में ईश्वर आए,देने हमें ज्ञान भण्डार।
गुरू तत्व को तुम पहचानो,इसकी महिमा अपरम्पार।
मंगल सदा शिष्य का होता,गुरू कृपा से ही तो खास।
गुरू शिष्य का बंधन ऐसा,जो आता है दिल को रास।

मात-पिता गुरु के चरणों में,जो नित अपना शीश झुकाय।
सदा विजय उसकी है होती,मनचाही मंजिल वो पाय।
एकलव्य सा शिष्य मिले तो,गुरु मूरत भी दे दे ज्ञान।
गुरू द्रोण की किरपा से ही,अर्जुन ने सीखा संधान।

'ललित'

दोधक छंद

जीवन की अनबूझ कहानी।
वृद्ध हुआ कल का अभिमानी।
छोड़ चली हर इन्द्रिय ऐसे।
साथ यहीं तक था बस जैसे।

लेकिन डोल रहा मन प्यासा।
हाय बढ़े नित काम-पिपासा।
अंत नहीं मद-मोह-निशा का।
और नहीं कुछ भान दिशा का।

ललित

दोधक छंद
सुख-दुख

जीवन में दुख वो कब पाए?
जो वृषभानुसुता गुण गाए।
नाम जपो मुख से नित राधा।
पार करो दुख में हर बाधा।

ललित 

21.07.19
लावणी छंद

हर पंछी की यही कहानी,साँझ पड़े घर आना है।
सुबह सवेरे फिर से उड़कर,दाना चुगने जाना है।
चीं-चीं करते नन्हे बच्चे,जो भूखे बैठे घर में।
उनके मुख में भी रखने हैं,चुग्गे दाने दिन-भर में।

ललित

जीवन की अनबूझ पहेली,समझ कहाँ मन है पाता।
कभी मिले खुशियों का रेला,कभी दुःख 
दारुण आता।

लावणी छंद

पुष्पों की बगिया से थोड़ी,खुशबू लेते आना तुम।
सीख साथ में आना प्यारे,फूलों से मुस्काना तुम।
चुभन सहें काँटों की फिर भी,हर-पल हैं जो मुस्काते।
उन सुमनों की सौरभ से ही,देव-मनुज सब हर्षाते।

ललित


लावणी छंद

झम-झम-झम-झम बरसे बदरा,गरज-गरज कर फिर बरसे।
भिगो दिया गोरी का लहँगा,निकली ज्यों ही वो घर से।
शर्माई सकुचाई गोरी,भीग-भीग कर फिर भागी।
साजन से मिलने की इच्छा,जाग-जाग कर फिर जागी।

ललित

लावणी छंद

प्यार छुपाए दिल ही दिल में ,चाँद भटकता  रजनी में।
प्यारा सा इक प्यार भरा दिल, ढूँढे अपनी सजनी में।
कहे चाँदनी सजना प्यारे,प्यार भरा दिल ये मेरा।
दे दूँगी इक झटके में यदि,प्यार मिले मुझको तेरा

ललित

लावणी छंद

मिलते हैं वो चाँद चँदनिया,दुनिया रोशन करने को।
अँधियारे को चीर दिलों में,प्रेम तरंगें भरने को।
रात अमावस की काली कब,दिल की प्यास बुझा पाती।
चाँद-चँदनिया की मादकता,प्रेमी जोड़ों को
भाती।

ललित

लावणी छंद

दिल चाहता था प्यार के कुछ,पल समेटूँ 
झोलियों में।
पर प्यार का प्यासा रहा दिल,खो गए पल बोलियों में।
ऐ वक्त तू इक पल ठहर जा,प्यार का अहसास कर लूँ।
मैं प्यार की गहराइयों में,चार गहरी साँस भर लूँ।

ललित

30.07.19
चौपाइयाँ

श्यामप्रिया राधा सुकुमारी,नटवर-नागर कृष्णमुरारी।
नंदनवन महका है ऐसे,चंदन-कानन महके जैसे ।

पुष्प लदी हर डाली चहके,लतिकाओं का मन भी बहके।
राधा की वेणी में जूही,महक रही मस्ती में यूँही।

नाक नथनियाँ पहने राधा,कान्हा ने वंशी-सुर साधा।
मोरपंख कान्हा ने धारा,राधा ने दिल उस पर वारा।

कान्हा की कजरारी अखियाँ,देख-देख बलिहारी सखियाँ।
रास-रचाए रस बरसाए,कान्हा सबका मन हर्षाए।

दोहा

मगन हो रहा रास में,व्रज का माखनचोर।
ठुमक-ठुमक कर नाचता,नटखट नंदकिशोर।

ललित



चौपाई

बड़ा लालची मानव मन है,
हर रिश्ते में खोजे धन है।

ईश्वर को भी धन दिखलाए,
हरि को भी देना सिखलाए।

तन करता धन का  साधन है,
मन काला और गोरा तन है।

नहीं मिले जब मनचाहा धन।
बिदक-बिदक जाता है ये मन।

ललित

जून 2019 की रचनाएँ


जून 2019


01.06.19
राम नाम
कुण्डल छंद

रोम-रोम जपे नाम,राम-राम हर पल।
साँस रोक देत मौत,बिना किए हल-चल।
चार दिन की ज़िंदगी,मूल्यवान पाई।
जप ले तू राम-राम, चुका कर्ज भाई।

ललित

माँ

माँ तेरी अँखियों में मैंने,प्यार सदा निश्छल पाया।
भूल नहीं पाया मैं अब तक,तेरी ममता की
छाया।
सपनों में दिखती है अब भी,तू मेरा सिर सहलाती।
आज याद करके तुझको माँ,अश्रु आँख में भर आया।

ललित

03.06.19

हील
आधार छंद

नारंगी चश्मा लगा,पहने ऊँची हील।
चलते-चलते कर रही,मोबाइल पर डील।

पत्थर से टकरा गिरी,चश्मा छिटका दूर।
गरम सड़क थी कर रही,हँसकर उसको फील।

ललित

झटका
आधार छंद

ऐसा झटका था लगा,दिल को मेरे यार।
जब उस नारी से हुईं,मेरी आँखें चार।
बेशर्मी थी आँख में,फटी हुई थी जींस।
उमर साठ के पार थी,जुल्फें फुग्गे-दार।

ललित 

आधार छंद
स्वार्थ

मतलब की हैं यारियाँ,स्वार्थ भरे सम्बंध।
दें फूलों की क्यारियाँ,मतलब से  मधुगंध।
सबको अपनी है पड़ी,सबको खुद से प्रीत।
परमारथ के नाम से,हर दरवाजा बंद।

ललित.

सूर्यदेव
आधार छंद

सूर्य देव कुछ कम करो,गर्मी का ये ताप।
मत गरीब की हाय लो,लू-लपटें दे आप।
एसी-कूलर-कुल्फियाँ,वट-पीपल की छाँव।
सबको है झुलसा रही,ये गर्मी बे-माप।

ललित

आधार छंद
भोर-मोर

मधुर-मधुर जब बाँसुरी,बजती है हर भोर।
सात सुरों की रागिनी,बिखराए हर ओर।
अधरों पर कान्हा लिए,मंद-मंद मुस्कान।
वंशी सुनकर नाचते,नंदन-वन में मोर।

ललित

आधार छंद
राजनीति

बैरी से बैरी मिलें,राजनीति के मंच।
बेशर्मी लादे हुए,देखें सपने टंच।
जनता को उल्लू समझ,मिला हाथ में हाथ।
कुर्सी पाने के लिए,रचते खूब प्रपंच।

ललित

आधार छंद
देह

बहुत सँभाली प्यार से,माटी की ये देह।
और किसी को कब किया,इससे ज्यादा नेह?
वृद्धावस्था में मगर,साथ छोड़ती चर्म।
सिखला देती चाटना,राम-नाम अवलेह।

 ललित

आधार छंद
देश

इंद्रधनुष सम देश में,सात रँगों का मेल।
रिमझिम बारिश में दिखे,अद्भुत सुंदर खेल।
मिल-जुल कर सब जातियाँ,करें देश उत्थान।
छुक-छुक कर चलती रहे,सतरँग की ये रेल।

ललित

ताटंक छंद
चिड़िया

छोटी-सी इक नन्ही-सी इक ,चिड़ियामेरे घर आई।
मनी-प्लाँट की बेल न जाने,क्यों उसके मन को भाई?
एक माह तक हर-दिन थोड़े,तिनके चुन मुँह में लाई।
बना घोंसला मनी-प्लाँट पर,बन बैठी सबकी ताई।

ललित

आधार छंद
गर्मियाँ

कैसी-कैसी गर्मियाँ,सह सकते हैं आप।
वृक्ष लगो जब काटने,ये कर लेना माप।
हरी-भरी थी जो धरा,वन-उपवन समृद्ध।
कटे वृक्ष तो दे रही,नर को निशि-दिन शाप।

ललित

आधार छंद
नंदकिशोर

नैन बंद कर राधिका,मंद-मंद मुस्काय।
नटखट नंद-किशोर का,हिय में दर्शन पाय।
सब कहते वो साँवरा,ऐसा है चितचोर।
जिसका दिल चोरी करे,उसके हिय बस जाय।

ललित

आधार छंद
नई पौध

अनजानी सी हो गई,अब तो हर पहचान।
कंकरीट में फँस गई,ज्यों धरती की जान।
जल बिन बंजर हो रही,धराआज हर ओर।
वन-उपवन सर-कूप से,नई पौधअंजान।


ललित

रोला छंद
जजबात

फूलों के जजबात,यहाँ कब समझा कोई?
काँटों के सह वार,सदा ही कलियाँ रोई।
कलियाँ बनके पुष्प,कहाँ अब खिल पाती हैं।
पानी की क्या बात,हवा कातिल पाती हैं।

ललित


छंद सिंधु
कलियाँ

कहीं कलियाँ बिखरती थी हवाओं में।
कहीं भाषण दिए जाते चुनाओं में।
कहीं थी लाडली अस्मत रही खोती।
कहीं थी चैनलों पर ही बहस होती।

ललित

कलियाँ
छंद सिंधु

न कलियाँ मुस्कुरा सकती कभी खुलकर।
हवा में बह  रही जब वासना घुलकर।
न फूलों में बची खुशबू वहाँ कोई।
कि मानवता जहाँ मुख फेर कर सोई।

ललित

कलियाँ
मुक्तक 16-14

कलियाँ सब सिकुड़ी-सिमटी हैं,पवन चली हाहाकारी।

कंटक चीर रहे कोमल-तन,सिसक रही अबला नारी।

खग भी उड़ने से डरते हैं,बाज झपटते हैं ऐसे।

कैसा भारत कैसी महिमा,कैसे ये  सत्ताधारी?

ललित

देह
आधार छंद

पंचतत्त्व से जो बनी,भरी विषों से देह।
साथ सदा देगी नहीं,मत कर उससे नेह।
वृद्धावस्था में सदा,तन को छोड़े चाम।रसना से नित चाट तू,राम-नाम अवलेह।

ललित

सपने
मुक्तक  

सपनों की दुनिया में खोए,जगकर चलना भूल गए।
पापों से जो फटी चुनरिया,उसको सिलना 
भूल गए।
बचपन बीता गई जवानी,वृद्धावस्था गले पड़ी।
नाते-रिश्ते रहे निभाते,खुद से मिलना भूल गए।

ललित

जिंदगी
आधार छंद

चार दिनों की ज़िंदगी,हँसकर जी ले मीत।
कान लगाकर सुन ज़रा,जीवन का संगीत।
सुन कोयल की कूक तू, झरनों की आवाज़।
खुश रहना तू सीख ले,छिपी इसी में जीत।

ललित

गर्मी
आधार छंद

कुछ तो गर्मी कम करो,हे! दिनकर भगवान।
लू-लपटें नित ले रही,मासूमों के प्राण।
ताल-तलैया कूप में,जल की बची न बूँद।
एसी-कूलर ठप हुए,साँसत में है जान।

ललित

वृक्ष
आधार छंद

धरती को नंगा किया,काट-काट कर वृक्ष।
रुकी धरा की साँस है,घायल उसका वक्ष।
अब गर्मी का दोष दें,दिनकर को सब लोग।
मन ही मन कहते रहें,मानव खुद को दक्ष।

ललित
10.06.19

भोला-बाबा
कबीर छंद/सरसी

भोला-भाला बाबा आया,मात तुम्हारे द्वार।
श्याम-लला के दर्शन करने,की है बस  दरकार।
झाड़-फूँक कर नजर उतारे,ये बाबा है खास।
बालक रोना बंद करेगा,आएगा जब पास।

ललित 

कलियाँ
कबीर छंद/सरसी

भारत में कलियों का खिलना,दूभर कितना आज?
खिलने से पहले तन नोचें, कदम-कदम पर बाज।
सरकारें ही जब अंधी हों,अंधे थानेदार।
न्याय मिले आहत कलियों को,करो नहीं दरकार।

ललित

श्याम साँवरे
कबीर छंद/सरसी छंद

श्याम साँवरे तेरी मुरली,की धुन है क्या खूब।
धरती अम्बर और सितारे,जाते जिसमें  डूब।
सपने में ही हमें सुना दे,उस वंशी की तान।
जिसकी मधुर धुनों में बसती,है राधा की जान।

ललित

चाय
कबीर छंद

छम-छम-छम-छम बजें पायलें,जियरा झूमा जाय।
आएँगें अब साजन पीने,अदरक वाली चाय।
आज कहू्ँगी मैं प्रियतम से,अपने मन की बात।
मोबाइल को छोड़ो ये है,मधुर-मिलन की रात।

ललित

इंद्रधनुष
कबीर छंद

घन-घन-घन-घन बादल गरजें,मोर मचाएँँ शोर।

ऊँचे पर्वत के पीछे से,झाँके स्वर्णिम भोर।

शीतल निर्मल जल की बूँदें,ले आई बरसात।

इंद्रधनुष ने सात रंग की,दी अद्भुत सौगात।

ललित

17.06.19


कबीर छंद
सलाह

भाग-दौड़ से जीवन की कुछ,समय निकालो आप।
सुबह-सैर दो कोस करो सब,मिट जाएँ संताप।
खुली हवा में बैठो थोड़ा,कर लो कुछ व्यायाम।
प्राणायाम ज़रा कर लो तो,मन पाए विश्राम।

ललित

19.06.19

सुख-दुख
कुकुभ छंद

सुख-दुख में गोते खाते ही,बीत गया जीवन सारा।
वृद्धावस्था में आकर क्यूँ ,लगता है जीवन हारा?
जिस मस्ती में यौवन बीता,उस मस्ती में अब जी ले।
औरों से मत कर आशा तू,खुद अपने सब ग़म पी ले।

ललित

बाँसुरिया
कुकुभ छंद

जादू नगरी से बाँसुरिया,ऐसी लाया नँदलाला।
अधरों से जब लगती है तो,झूम उठे हर व्रज-बाला।

गोप-गोपियाँ दौड़े आते,काम छोड़ कर सब आधा।
बिना पादुका दौड़ी आती,सुन मुरली की धुन राधा।

ललित

मोबाइल
कुकुभ छंद

मोबाइल का भूत सभी को,लगता है बेहद प्यारा।
पाँच इंच की डिबिया में अब,बंद हुआ है जग सारा।
शादी की हर वर्ष-गाँठ अरु,जन्म-दिवस ये दिखलाता।
किसे बधाई कैसे देनी,मोबाइल ही सिखलाता।

ललित

दिनकर
कुकुभ छंद

एक अकेला दिनकर सारे,जग को रोशन कर देता।
स्वर्ण-रश्मियों की झिलमिल से,धरती का तम हर लेता।

जो नित सूर्यदेव को जल का, अर्पण करता इक लोटा।
दसों दिशा यश फैले उसका,कभी न देखे दिन खोटा।

ललित

20.06.19
कान्हा
कुकुभ छंद

माटी-खाना माखन-खाना,चोरी-करना कब छोड़ा?
ओ कान्हा बतला दे तूने,कपड़े हरना कब छोड़ा?
जिस प्यारी राधा के सँग तू,नंदन-वन में नित झूला।
जरा बता दे उस राधा को,क्यों-कर कैसे कब भूला?

ललित

बदरा प्यारे
ताटंक छंद

सूख गया सब नीर धरा का,बचे समंदर हैं खारे।
अधर नैन मन की प्यासों से,नर-नारी सब हैं हारे।
इंद्र-देव से आज्ञा लेकर,बरसा दे जल
के धारे।
इस धरती की प्यास बुझाने,आजा ओ बदरा प्यारे।

ललित


22.06.19
कुकुभ छंद
श्रृंगार

अंग सुकोमल रूप मनोहर,
चंचल चितवन तिरछी सी।

कान्हा की दीवानी राधा,
बोले तीखी मिरची सी।

छम-छम-छम-छम करती आए,
गीत बाँसुरी जब गाए।

देखे उसको इक-टक मोहन,
नज़र शरारत कर जाए।

ललित

चंचल मन
कुकुभ छंद

चंचल मन नित खोया रहता,नए-नए सुख-सपनों में।
खोजा करता खुशियों के पल,सभी परायों-अपनों में।
आनँद अपने अंदर का क्यों,देख नहीं ये मन पाता ?
वो आनँद जो अनुभव करता,नर वो भव से तर जाता।

ललित

वोट
कुकुभ छंद

देश-प्रेम की बातें कर जो,वोट बटोरा करते हैं।
उनसे अच्छे भिखमंगे गा,भजन कटोरा भरते हैं।
कुछ नेता जनता को धोखा,दे हत्याएँ करवाएँ।
कुछ वोटों की खातिर अपने,ही लोगों को मरवाएँ।

ललित

आपा-धापी
ताटंक छंद

कैसी आपा-धापी में कब,ये जीवन सारा बीता?
समझ नहीं पाया कुछ भी मन, क्या हारा अरु क्या जीता?
बचपन की कुछ मीठी यादें,सुंदर स्वप्न जवानी के।
यही बचे हैं अब झोली में,अंतिम दौर रवानी के।

ललित

ताटंक छंद
राधा-राधा

राधा-राधा रटते-रटते,मोर-मुकुट सिर है धारा।
कारे-कारे मनमोहन की,अँखियों में कजरा कारा।
पीताम्बर पहना दे मैया,राह निहारे है राधा।
बाँसुरिया-लकुटी पकड़ा दे,दिन चढ़ आया है आधा।


ललित

ताटंक
नवीन भाव

फूलों की बगिया में सौरभ,की ऐसी महिमा पाई।
हवा चुरा खुशबू सुमनों से,मन-आँगन में ले आई।
पुलक उठा यों मन का उपवन,
सौरभ से भीनी-भीनी।
आई हो ज्यों स्वप्न सुंदरी,ओढ़ चुनर झीनी-झीनी।

ललित

नन्ही परी
ताटंक छंद

सुंदर सपनों में रँग भरने,नन्ही एक परी आई। 
रंग-बिरंगे खुशियों के पल,अपनी झोली में लाई।
प्यारी-प्यारी बातें करती,शैतानों की नानी 
है।
रोज रात को दादू से वो,सुनती नयी कहानी है।

ललित

कारे बदरा
ताटंक छंद

कारे बदरा आगे मत जा,नीर यहीं बरसा जा रे।
जल बिन सूखे अधर हमारे,क्यों हमको
तरसाता रे?
बहुत सही है गर्मी हमने,लू ने बहुत तपाया है।
वो शीतलता हमको दे जा,सागर से जो लाया है।

ललित

बेटी
 ताटंक छंद

बहुत पढाया बेटों को अब,बेटी को भी मौका दो।
अपनी प्यारी बेटी को मत,जबरन चूल्हा चौका दो।
बेटी के सपनों में सुंदर,प्यारे रँग भरते जाओ।
उसकी राहें आसाँ कर दो, हर बाधा हरते जाओ।

ललित

सुख-दुख
कुकुभ छंद

सुख अरु दुख की परिभाषाएँ,आपस में यों उलझी हैं।
जीवन भर सुलझाए नर-मन,लेकिन ये कब सुलझी हैं?
दुख में सुख अनुभव करने की,कला कई
मानव जानें।
और कई मानव सुख में भी,अल्प कमी को दुख मानें।

ललित

राधा-कान्हा
ताटंक छंद

मन-मन्दिर में शोभित हो जब,राधा-कान्हा की जोड़ी।
नयन बन्द करते ही उठती,आनँद की लहरें थोड़ी।
कभी दिखाई देता कान्हा,मन्द-मन्द मुस्काता सा।
कभी दिखाई देता आँखें,गोल-गोल मटकाता सा।

नंदन-वन में गाय चराता,मुरली मधुर बजाता वो।
कभी राधिका अरु सखियों सँग,मनहर रास रचाता वो।
गोवर्धनधारी जो देता,मात इंद्र की चालों को।
खेल-खेल में वो मिलवाता,ईश्वर से व्रज वालों को।

ललित

बाबुल का अँगना
ताटंक छंद

अँखियों में हैं सुंदर सपने,दिल में प्रीत पिया की है।
डोली में बैठी है गोरी,थामे रास हिया की है।
छोड़ चली बाबुल का अँगना,छूट गईं सखियाँ सारी।
पहली पारी खेल चुकी अब,खेलेगी दूजी पारी।

ललित

माली
ताटंक छंद

फूलों में सुंदर रँग भरकर,खुशबू किसने है डाली?
सोच रहा खुश हो कर माली,देख गुलाबों की लाली।
मुस्कानों को भी देते हैं,जो सीखें मुस्काने की।
वही सुमन जानें तरकीबें,काँटों से टकराने की।

ललित

बच्चे
ताटंक छंद

सोच पुरानी की अब खिल्ली,उड़ा रहे हैं 
जो बच्चे।
जीवन की दुर्गम राहों में,इक दिन खाएँगें 
गच्चे।
जो जनरेशन-गैप कहाता,नहीं समझ में आता है।
बच्चों के बच्चे होते तो,गैप कहाँ खो जाता है?

ललित

छद श्री सम्मान