मार्च 2019

मार्च 2019

मात-पिता के चरणों में तो,सचमुच में रहता है रब।
याद आपकी मन को छूकर,दे जाती पावन सौरभ।
संकट-मोचक रूप आपका,देखा है हमने हरदम।
परम-पूज्य हे पिता आपको,सादर नमन करें हम सब।
'ललित'

कुण्डलिया

मनमोहन हे ! साँवरे,इतनी सी है आस।
तन कर्मों में लीन हो,मन हो तेरे पास।
मन हो तेरे पास,नयन में छवि हो तेरी।
श्याम-नाम अविराम,जपे ये रसना मेरी।
तुच्छ ललित को श्याम,लगें हीरे धन-यौवन।
मन कर दो निष्काम,साँवरे हे!मनमोहन।

ललित

कुण्डलिनी

यमुना की लहरें थमीं,पायल हुई उदास।
नंदन-वन सूना पड़ा,वंशी-वट के पास।

वंशी-वट के पास,नहीं दिखते अब ग्वाले।
वन-वन खोजें श्याम,पड़े पैरों में छाले।

ललित

आल्हा छंद

जीत गया दुश्मन से अब तू ,भीतर वालों से भी जीत।
नहीं भा रहे जिनको तेरे,यशोगान करते कुछ गीत।

देश विरोधी तत्व अनेकों,जो अलापते बेसुर राग।
उनको भी दे दे सबूत तू ,दिखलाकर वो जलती आग।

ललित किशोर 'ललित'

आल्हा छंद

अलख निरंजन हे!शिव शम्भो,हे!देवों के देव महेश।
गरल कण्ठ में धारण कीन्हा,और गले में  नाग-विशेष।
अंग भभूत रमाए डोले,डम-डम डमरू बजे त्रिकाल।
माला और त्रिशूल साथ में,पहने नर-मुण्डों की माल।

मृगाधीश चर्माम्बर धारी,कैलाशी भूतों के नाथ।
पारवती-पति महादेव हे!,देना निज भक्तों का साथ।
माथ विराजे गंग-धार है,शशि से शोभित सुंदर भाल।
हे!त्रिनेत्र हे!शंकर भोले,एक नजर भक्तों पर डाल।

ललित किशोर 'ललित'

05.03.19

कुण्डलिया छंद
प्रयास

अभिनन्दन ने कर दिया,दुश्मन का वो हाल।

खुसुर-फुसुर हैं कर रहे,पाकिस्तानी लाल।

पाकिस्तानी लाल,कसमसाते ही डोलें।

और हिंद के लाल,हिंद की जय-जय बोलें।

धरा रही है महक,देश की जैसे चंदन।
बच्चा-बच्चा आज,कहे जय-जय-अभिनंदन।

ललित

चौपाई

भाँति-भाँति के हैं नर-नारी,जिनसे महके धरती सारी।

लम्बे-ठिगने गोरे-काले,मोटे-पतले सभी निराले।

कुछ अनपढ़ कुछ बहुत पढ़े हैं,कुछ नीचे कुछ शिखर चढ़े हैं।

कुछ निर्धन कुछ बहुत धनी हैं,कुछ के सिर पर छाँव घनी है।

पुण्यों से कुछ भरते झोली,कुछ खेलें पापों की होली।

दोहा

अपने-अपने कर्म-फल,सभी रहे हैं भोग।
निज कर्मों में हैं लगे, भाँति-भाँति के लोग।

ललित

चौपाई

शीतल सुरभित पावन छाया,वृक्ष नीम का देता आया।

वट-पीपल तालाब किनारे,गर्मी में सुख देते सारे।

चौपाई

केशव-माधव कृष्ण-मुरारी।
मनमोहन गोवर्धनधारी।

माखनचोर नंद का लाला।
धेनु-चरैया वंशीवाला।

नटवर-नागर मोहन प्यारा।
यमुना के जल जैसा कारा।

राधा जी का छैल-छबीला।
निशि-दिन करता रास-रसीला।

दोहा

यशुदा-नंदन साँवरा,मुरलीधर गोपाल।
जपने वाले का कभी,होय न बाँका बाल।

ललित

08.03.19
चौपाई

जीवन का रथ बड़ा निराला।
दो पहियों पर चलने वाला।

इक नारी इक नर का चक्का।
दोनों मिलकर देते धक्का।

जीवन में रँग भरती नारी।
नहीं कभी विपदा से हारी।

नारी से ही हर घर महके।
घर का कोना-कोना चहके।

पहिए हों जब ढीले-ढाले।
दोनों पहिए वही सँभाले।

दोहा

फूल बिछाएँ नारियाँ,जिस पथ सुबहो-शाम।
जीवन-रथ चलता रहे,उस पथ पर अविराम।

ललित

चौपाइयाँ
जीवन के रँग
समीक्षा हेतु

जीवन के रँग बड़े निराले।
शैशव को यौवन में ढाले।

यौवन का मद सिर चढ़ बोले।
वृद्धावस्था अँखियाँ खोले।

जिसे जन्म दे पाले-पोसे।
तात-मात को वो सुत कोसे।

बदला जितनी शीघ्र ज़माना।
तात रहा उससे अंजाना।

जीवन के सारे रँग काले।
वृद्धावस्था ने ही पाले।

दोहा

वृद्धावस्था के लिए,बचा रखो धन शेष।
जीवन के रँग दे रहे,आज यही संदेश।

ललित

मुक्तक
भोर

हौले से जब छुटका कान्हा,भोर भए
अँखियाँ खोले।
मात यशोदा लेत बलैयाँ,मधुर-मधुर बतियाँ बोले।
बाल-सखा सँग गैयाँ प्यारी,नंदन-वन की ओर चलें।
वंशी-लकुटी लेकर कान्हा,गैयन के पीछे हो ले।

ललित किशोर 'ललित'

चौपाई

भोर भए जैसे ही जागा।
माखन का लौंदा ले भागा।

भाग रही है पीछे मैया।
हाथ न आए कृष्ण कन्हैया।

बेबस होकर मात पुकारे।
रुक जा मेरे राज-दुलारे।

रुकजा-रुकजा छुटके राजा।
पहले तू मुख तो धुलवाजा।

शुद्धोदक से स्नान कराऊँ।
नए वस्त्र धारण करवाऊँ।

केश सँवारूँ सुंदर तेरे।
मोरपंख से कान्हा मेरे।

काला टीका भाल लगा दूँ।
बुरी नज़र को दूर भगा दूँ।

फिर तू माखन-मिश्री खाना।
मधुर मुरलिया तान सुनाना।

दोहा

भक्तों की सुख के लिए,बन कर माखन चोर।
लीला-धर लीला करे,नटखट नंदकिशोर।

ललित

चौपाई

इस मन को कितना समझाया,
सुख-दुख आती जाती छाया।

सुख की चाह सदा ही रहती।
दुख की तो नदिया ही बहती।

मन सुख को मुट्ठी में जकड़े।
सुख आए तो सबसे अकड़े।

दुख की छाया से घबराता।
मन्दिर-मन्दिर ढोक लगाता।

दोहा

सुख-दुख में जो सम रहे,मन में हो आनंद।
उसके उर में नित बहें,खुशियों के मकरंद।
 
ललित

चोपाइयाँ (समीक्षा हेतु)
शादी

नई-नई शादी थी मेरी
पत्नी की थी जुल्फ घनेरी।
मुझे प्यार से देखा करती।
प्रीत नैन से उसके झरती।

स्वर्ग समान बीतती रातें।
भोर भए तक चलती बातें।
स्वप्न सुनहरे देखें निशि-दिन।
नहीं रहें इक दूजे के बिन।

वक्त मगर तेजी से घूमा।
बाहों में इक बच्चा झूमा।
रातों में जो बच्चा जागा।
आधा प्यार वही ले भागा।

जैसे तैसे खुद को ढाला।
बच्चे को भी हमने पाला।
मगर प्यार अब नजर न आए।
पत्नी दूर-दूर ही जाए।

धीरे-धीरे दिन वो आया।
पत्नी ने हमको धमकाया।
छोड़ो अब ये प्यारी बातें।
तारे गिन-गिन काटो रातें।

दोहा

सतरंगी सपने लिए,शादी-लड्डू खाय।
चार बरस मीठा लगे,कड़वा होता जाय।

ललित

11.03.19

प्रथम प्रयास
गीतिका छंद(समीक्षा हेतु)

पूर्णिमा की चाँदनी में,बाँसुरी लेकर खड़ा।
राधिका सँग रास करता,साँवरा बाँका बड़ा।
पायलों की छम-छमा-छम,कान में रस घोलती।
गोपियों सँग राधिका जब,बाँसुरी सुन डोलती।

'ललित'

गीतिका छंद
प्यार और दिल
समीक्षा हेतु

भावनाएँ प्यार की दिल,में दबी मेरे रही।

अनगिनत दुर्भावनाएँ,प्यार में मैंने सही।

प्रेम में कोमल हुआ दिल,टूटता भी तो नहीं।

प्रीत का ऐसा नशा है,छूटता भी तो नहीं।

ललित

उधेड़-बुन में रात भर,करवट बदले तात।
बेटी के कैसे करूँ,अब मैं पीले हाथ।

हाल ही में एक शादी में दुल्हन को ठुमके लगा लगा कर नाचते देखा....और बना ये छंद

गीतिका छंद
लाज
समीक्षा हेतु

गाल पर वो शर्म की अब,लालियाँ दिखती नहीं।
कान में नवयौवना के,बालियाँ दिखती नहीं।
हाथ में चूड़ी न कंगन,भाल पर बिंदी नहीं।
दुल्हनों के नैन में भी,लाज की चिंदी नहीं।

गीतिका छंद
धरम
समीक्षा हेतु

लाज को भी लाज आए,शर्म मरती देखकर।
जींस फट-कर गोरियों की,लाज हरती देखकर।
सोच का निकला दिवाला,आँख से निकली शरम।
धन कमाना और खाना,रह गया है अब धरम।

ललित

गीतिका छंद

नाव का है रंग अपना ,और अपनी है डगर।
छा रहे बादल गगन में,दूर अपना है नगर।
नाविकों को मंजिलों की,दूरियाँ कब रोकती?
हौसलों में धार हो तो,मुश्किलें कब टोकती।

ललित

गीतिका छंद

है जहाँ आतंकियों का,सरगना सरकार में।
वार छुप-छुप कर रहा जो,शांति की दरकार में।
पाक वो नापाक अपना,सिर छिपाएगा कहाँ?
गंदगी के ढेर की बदबू दबाएगा कहाँ?

ललित

मुक्तक 14-14

देह में वो रक्त है जो,भारती माँ ने दिया है।

आज सिर बाँधा कफन है,प्रण यही हमने लिया है।

देह की हर बूँद भारत,देश को अर्पण करेंगें।

खत्म हर आतंक होगा,फैसला हमने किया है।

ललित

मुक्तक 16-12

जीवन के इस रंग-मंच पर,मिलते रंग अनोखे।
सतरंगी सपनों में अक्सर,रंग भरें जो चोखे।
कुछ रँग बीच भँवर में से भी,पार कराते नैया।
मिलें गरल-सम रंग कई जो,दे जाते हैं धोखे।

ललित

मुक्तक 16-12

बही जा रही जीवन-धारा,निशि-दिन मंथर गति से।
मत भागो तुम आगे-आगे,धन की लोभी मति से।
आगे भागोगे तो सब सुख,पीछे रह जाएँगें।
सीखो समता में रह जीना,वेद पुराणो श्रुति से।

ललित

मुक्तक 16-12

श्री राधे श्याम राधे श्याम,राधे श्याम  बोलिए।
जो राधिका का नाम लेता,श्याम उसके हो लिए।
जब चल रहे हों राह में तो,जाप मन ही मन चले।
हर समय कर जाप समझो,पाप सारे धो लिए।

ललित

गीतिका छंद
समीक्षा हेतु

पायलों के घुँघरुओं की,उस मधुर झंकार में।
चाँदनी भी खो गई है,रास के संसार में।
चाँद कुछ थम सा गया है,गोपियाँ हैं झूमती।
कृष्ण-अधरों को निराली,बाँसुरी है चूमती।

ललित

गीतिका छंद

दीप-बाती साथ मिलकर,रोशनी करते वहाँ।
प्यार में दो दिल धड़क कर,एक होते हैं जहाँ।
छोड़ सिंदूरी उजाला,प्रेम के आकाश में।
दीप-बाती खुद बँधे हैं,प्रीत के इक पाश में।

ललित

गीतिका छंंद

सात फेरे ले बँधे वो,सात जन्मों के लिए।
स्वप्न आँखों में हजारों,भर सुनहरे चल दिए।
प्यार के संसार की सब ,कल्पनाएँ सच हुईं।
अब छुएँगें मंजिलें जो ,अब तलक थी अनछुई।

ललित

गीतिका छंद

साजना के साथ दुल्हन,सात फेरे ले रही।
तात हैं खुश हो रहे माता दुआएँ दे रही।
राज-रानी बन रहे तू , खुश रहे फूले-फले।
भाग्य-लक्ष्मी साथ तेरे,लाडली बेटी चले।

ललित

गीतिका छंद

रूप दुल्हन का निखारा,प्यार से हल्दी लगा।
नाचती हैं सालियाँ सब,साथ जीजा है सगा।
नाचते समधी सभी हैं,साथ में घरवालियाँ।
गूँजती पांडाल में बारातियों की तालियाँ।

ललित

गीतिका छंद
पड़ोसन

वो पड़ोसन नित खरीदे ,खूब महँगी साड़ियाँ।
साजना उसका चलाए,चमचमाती गाड़ियाँ।
मेक-अप ऐसा करे वो,गाल पर लाली लगा।
घूरते हैं सब पड़ोसी,ऐनकें काली लगा।

ललित

गीतिका छंद
माँ-बेटी

आज माँ की लाडली बेटी पराए घर चली।
अश्रु भाई तात माँ की आँख में वो भर चली।
जो कली महका रही थी,आँगना के बाग को।
संग सौरभ चल पड़ी वो,साजना के बाग को।

ललित

मुक्तक
आद्या

छोटी-छोटी दो-दो चोटी,वाली आद्या रानी।
सीधी इसको समझो तुम ये,मत करना नादानी।
पशू-पक्षियों से ये छुटकी,प्यार बहुत करती है।
छोटी सी ये दिखती पर है,शैतानों की नानी।

ललित

गीतिका छंद

क्या उचित है और क्या अनुचित जरा ये जान लो।
बात अपने से बड़ों की,प्यार से तुम मानलो।
ठोकरें खा कर जिन्होंने,ज्ञान कुछ अर्जित करा।
ठोकरें खानी न हों तो,सीख लो उनसे जरा।

ललित

गीतिका छंद

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