जुलाई 19
ताटंक छंद
माँ
सबसे प्यारी सबसे न्यारी,दुनिया में है होती माँ।
संतानों के जीवन में है,बीज सुखों के बोती माँ।
नित लें जो आशीष मात का,छू कर माँ के पैरों को।
धूल चटा देते हैं वो नर,अच्छे-अच्छे शेरों को।
ललित
रूबाई
छंदों की रानी रूबाई,लिखने बैठे हम भाई।
रचनाएँ सारे मित्रों की,सुंदर बहुत नज़र आईं।
नया विषय अनछुआ चुनें क्या,सोच रहे थे
हम बैठे।
गरमा-गरम पकौड़ों के सँग,आई वो लेकर चाई।
ललित
रुबाई छंद
अखियों पर नारंगी चश्मा,छतरी थी सिर पर प्यारी।
नारी सुलभ नहीं थी लज्जा,भाव-भंगिमा असुरारी।
बाल कटे सैंडल ऊँचे थे,जींस-टॉप तन चिपके से।
चंदन की सौरभ में लिपटी,क्या थी वो सुंदर नारी?
ललित
रुबाई
सुंदर फूल खिले बगिया में,झूमे मन ही मन माली।
रात-रात भर जाग-जाग कर,की थी उसने रखवाली।
जग में सौरभ फैलाएँगें,सुमन सदा इस बगिया के।
यही सोच कर मुस्काता है,हाथ रह गए अब खाली।
ललित
रुबाई
बात कहो जब अपने मन की,उसकी भी लो सुन थोड़ी।
जिसने अपनी बात आपका, मूड देख मन रख छोड़ी।
हँसी-खुशी-विश्वास-प्रेम से,रिश्तों में रस भर जाए।
होता सफल वही है जिसने,राह समय के सँग मोड़ी।
ललित
रुबाई छंद
रहा देखता स्वप्न सुनहरे,अब तक तो हर पल प्यारे।
जाग नींद से भोर हुई अब,छोड़ रहे अम्बर तारे।
शाम रँगीली करनी हो तो, सुबहा में तू
हँस ले रे।
सपनों में रँग भरने हों तो,कर्मों में रँग भर
जा रे।
ललित
शक्ति छंद
122 122,122 12
दिखे खूबसूरत उसे ज़िंदगी।
करे श्याम की जो सदा बंदगी।
न बाधा कभी राह में आ सके।
धरे ध्यान जो श्याम को पा सके।
ललित
शक्ति छंद
न माखन भला आज क्यों खा रहा?
न गैया चराने लला जा रहा।
कहे माँ यशोदा कन्हैया बता।
रहा मात को क्यों लला तू सता?
नई बाँसुरी ये अधर से लगा।
बजा कर दिलों में उमंगें जगा।
सखा-ग्वाल सब ले रहे चुटकियाँ।
दिला श्याम माखन भरी मटकियाँ।
ललित
शक्ति छंद
नहीं ज़िंदगी से मुझे कुछ गिला।
मिला है किए कर्म का ही सिला।
नहीं है कमी कुछ मिला खूब है।
अजी कर्म का ये सिला खूब है।
ललित
शक्ति छंद
छिपी ये दुआ मात के प्यार में।
न संतान उलझे कभी खार में।
दुआ मात की जिस सुता को मिले।
सदा छू सके वो नई मंजिलें।
ललित
शक्ति छंद
कन्हैया ज़रा अर्ज सुन भक्त की।
मिटा दे निशानी बुरे वक्त की।
ज़रा देख ले इक नज़र भक्त को।
बुला दे इसी पल भले वक्त को।
ललित
मुक्तक
कुछ बूँदें बरसा कर मेघा,चले गए तुम और कहीं।
क्या तुमको भायी कोटा से,सुंदर कोई ठौर कहीं?
ताल-तलैया-पोखर-नदिया,धरती का हर-कण प्यासा।
क्या तुमको भटका बैठे हैं,सुंदर-सुंदर मोर कहीं?
ललित
शक्ति छंद
मधुर राग में बाँसुरी बज रही।
मधुर रात है राधिका सज रही।
गरजते हुए बादलों के तले।
मिले राधिका से कन्हैया गले।
ललित
शक्ति छंद
चलो आज सपने सुहाने बुनें।
नई गीत गाएँ पुराने सुनें।
नई मंजिलों के नई राह को।
चुनें मुस्कुराकर नई चाह को।
ललित
शक्ति छंद
बरसने लगे मेघ यूँ झूम कर।
तरसती धरा के अधर चूम कर।
लिए मस्त सौरभ हवा आ रही।
तटों से सटी हर लहर जा रही।
ललित
शक्ति छंद
नदी ताल झरने न दिखते जहाँ।
कलमकार कविता न लिखते वहाँ।
वनों पादपों की कमी से दुखी।
कलमकार कब हो सके है सुखी?
ललित
15.07.19
दोधक छंद
211 211 211 22
वार्णिक छंद
निष्ठुर ओ बदरा अब आजा
हर्ष भरी बुँदियाँ बरसा जा।
नीर फुहार मिले बदरों की।
प्यास बुझे मन की अधरों की।
ललित
दोधक छंद
जीवन की बस एक कहानी।
भूल करे नर ये अभिमानी।
पत्थर में भगवान तलाशे।
मन्दिर सा मन क्यों न तराशे?
ध्यान जरा मन में कर ले जो।
कृष्ण-कथा मन में भर ले जो।
श्याम-प्रभो दुख-ताप हरेंगें।
राह दिखा भव-पार करेंगें।
ललित
दोधक छंद
छोड़ गये व्रज को तुम ऐसे।
प्राण गए तन को तज जैसे।
वो वृषभानसुता बिसराई।
श्याम रही बन जो परछाई।
ये यमुना-तट राह निहारें।
गोप-सखा सब मीत पुकारें।
माखन के घट भूल गए क्या?
भा मथुरा के फूल गए क्या?
ललित
आल्हा छंद
आदरणीय राकेश जी को सादर समर्पित
आज गुरू चरणो में मेरा,नमस्कार है बारम्बार।
छंद और लय ज्ञान दिया है,और दिया है बेहद प्यार।
शब्दों का संयोजन सीखा,उनसे ही है मैंने आज।
छंदों की रचना में खोया,भरता हूँ मैं नित परवाज
गुरू देव की इच्छा में ही,मिल जाती है
जिनकी चाह।
ऊँची फिर परवाज भरें वो,और सुगम हो जाती राह।
नियमों का पालन करने से,लेखन पाता और निखार।
माँ शारद को हैं वो प्यारे,जो नर करें गुरू से प्यार।
गुरू रूप में ईश्वर आए,देने हमें ज्ञान भण्डार।
गुरू तत्व को तुम पहचानो,इसकी महिमा अपरम्पार।
मंगल सदा शिष्य का होता,गुरू कृपा से ही तो खास।
गुरू शिष्य का बंधन ऐसा,जो आता है दिल को रास।
मात-पिता गुरु के चरणों में,जो नित अपना शीश झुकाय।
सदा विजय उसकी है होती,मनचाही मंजिल वो पाय।
एकलव्य सा शिष्य मिले तो,गुरु मूरत भी दे दे ज्ञान।
गुरू द्रोण की किरपा से ही,अर्जुन ने सीखा संधान।
'ललित'
दोधक छंद
जीवन की अनबूझ कहानी।
वृद्ध हुआ कल का अभिमानी।
छोड़ चली हर इन्द्रिय ऐसे।
साथ यहीं तक था बस जैसे।
लेकिन डोल रहा मन प्यासा।
हाय बढ़े नित काम-पिपासा।
अंत नहीं मद-मोह-निशा का।
और नहीं कुछ भान दिशा का।
ललित
दोधक छंद
सुख-दुख
जीवन में दुख वो कब पाए?
जो वृषभानुसुता गुण गाए।
नाम जपो मुख से नित राधा।
पार करो दुख में हर बाधा।
ललित
21.07.19
लावणी छंद
हर पंछी की यही कहानी,साँझ पड़े घर आना है।
सुबह सवेरे फिर से उड़कर,दाना चुगने जाना है।
चीं-चीं करते नन्हे बच्चे,जो भूखे बैठे घर में।
उनके मुख में भी रखने हैं,चुग्गे दाने दिन-भर में।
ललित
जीवन की अनबूझ पहेली,समझ कहाँ मन है पाता।
कभी मिले खुशियों का रेला,कभी दुःख
दारुण आता।
लावणी छंद
पुष्पों की बगिया से थोड़ी,खुशबू लेते आना तुम।
सीख साथ में आना प्यारे,फूलों से मुस्काना तुम।
चुभन सहें काँटों की फिर भी,हर-पल हैं जो मुस्काते।
उन सुमनों की सौरभ से ही,देव-मनुज सब हर्षाते।
ललित
लावणी छंद
झम-झम-झम-झम बरसे बदरा,गरज-गरज कर फिर बरसे।
भिगो दिया गोरी का लहँगा,निकली ज्यों ही वो घर से।
शर्माई सकुचाई गोरी,भीग-भीग कर फिर भागी।
साजन से मिलने की इच्छा,जाग-जाग कर फिर जागी।
ललित
लावणी छंद
प्यार छुपाए दिल ही दिल में ,चाँद भटकता रजनी में।
प्यारा सा इक प्यार भरा दिल, ढूँढे अपनी सजनी में।
कहे चाँदनी सजना प्यारे,प्यार भरा दिल ये मेरा।
दे दूँगी इक झटके में यदि,प्यार मिले मुझको तेरा
ललित
लावणी छंद
मिलते हैं वो चाँद चँदनिया,दुनिया रोशन करने को।
अँधियारे को चीर दिलों में,प्रेम तरंगें भरने को।
रात अमावस की काली कब,दिल की प्यास बुझा पाती।
चाँद-चँदनिया की मादकता,प्रेमी जोड़ों को
भाती।
ललित
लावणी छंद
दिल चाहता था प्यार के कुछ,पल समेटूँ
झोलियों में।
पर प्यार का प्यासा रहा दिल,खो गए पल बोलियों में।
ऐ वक्त तू इक पल ठहर जा,प्यार का अहसास कर लूँ।
मैं प्यार की गहराइयों में,चार गहरी साँस भर लूँ।
ललित
30.07.19
चौपाइयाँ
श्यामप्रिया राधा सुकुमारी,नटवर-नागर कृष्णमुरारी।
नंदनवन महका है ऐसे,चंदन-कानन महके जैसे ।
पुष्प लदी हर डाली चहके,लतिकाओं का मन भी बहके।
राधा की वेणी में जूही,महक रही मस्ती में यूँही।
नाक नथनियाँ पहने राधा,कान्हा ने वंशी-सुर साधा।
मोरपंख कान्हा ने धारा,राधा ने दिल उस पर वारा।
कान्हा की कजरारी अखियाँ,देख-देख बलिहारी सखियाँ।
रास-रचाए रस बरसाए,कान्हा सबका मन हर्षाए।
दोहा
मगन हो रहा रास में,व्रज का माखनचोर।
ठुमक-ठुमक कर नाचता,नटखट नंदकिशोर।
ललित
चौपाई
बड़ा लालची मानव मन है,
हर रिश्ते में खोजे धन है।
ईश्वर को भी धन दिखलाए,
हरि को भी देना सिखलाए।
तन करता धन का साधन है,
मन काला और गोरा तन है।
नहीं मिले जब मनचाहा धन।
बिदक-बिदक जाता है ये मन।
ललित
No comments:
Post a Comment