जून 2019 की रचनाएँ


जून 2019


01.06.19
राम नाम
कुण्डल छंद

रोम-रोम जपे नाम,राम-राम हर पल।
साँस रोक देत मौत,बिना किए हल-चल।
चार दिन की ज़िंदगी,मूल्यवान पाई।
जप ले तू राम-राम, चुका कर्ज भाई।

ललित

माँ

माँ तेरी अँखियों में मैंने,प्यार सदा निश्छल पाया।
भूल नहीं पाया मैं अब तक,तेरी ममता की
छाया।
सपनों में दिखती है अब भी,तू मेरा सिर सहलाती।
आज याद करके तुझको माँ,अश्रु आँख में भर आया।

ललित

03.06.19

हील
आधार छंद

नारंगी चश्मा लगा,पहने ऊँची हील।
चलते-चलते कर रही,मोबाइल पर डील।

पत्थर से टकरा गिरी,चश्मा छिटका दूर।
गरम सड़क थी कर रही,हँसकर उसको फील।

ललित

झटका
आधार छंद

ऐसा झटका था लगा,दिल को मेरे यार।
जब उस नारी से हुईं,मेरी आँखें चार।
बेशर्मी थी आँख में,फटी हुई थी जींस।
उमर साठ के पार थी,जुल्फें फुग्गे-दार।

ललित 

आधार छंद
स्वार्थ

मतलब की हैं यारियाँ,स्वार्थ भरे सम्बंध।
दें फूलों की क्यारियाँ,मतलब से  मधुगंध।
सबको अपनी है पड़ी,सबको खुद से प्रीत।
परमारथ के नाम से,हर दरवाजा बंद।

ललित.

सूर्यदेव
आधार छंद

सूर्य देव कुछ कम करो,गर्मी का ये ताप।
मत गरीब की हाय लो,लू-लपटें दे आप।
एसी-कूलर-कुल्फियाँ,वट-पीपल की छाँव।
सबको है झुलसा रही,ये गर्मी बे-माप।

ललित

आधार छंद
भोर-मोर

मधुर-मधुर जब बाँसुरी,बजती है हर भोर।
सात सुरों की रागिनी,बिखराए हर ओर।
अधरों पर कान्हा लिए,मंद-मंद मुस्कान।
वंशी सुनकर नाचते,नंदन-वन में मोर।

ललित

आधार छंद
राजनीति

बैरी से बैरी मिलें,राजनीति के मंच।
बेशर्मी लादे हुए,देखें सपने टंच।
जनता को उल्लू समझ,मिला हाथ में हाथ।
कुर्सी पाने के लिए,रचते खूब प्रपंच।

ललित

आधार छंद
देह

बहुत सँभाली प्यार से,माटी की ये देह।
और किसी को कब किया,इससे ज्यादा नेह?
वृद्धावस्था में मगर,साथ छोड़ती चर्म।
सिखला देती चाटना,राम-नाम अवलेह।

 ललित

आधार छंद
देश

इंद्रधनुष सम देश में,सात रँगों का मेल।
रिमझिम बारिश में दिखे,अद्भुत सुंदर खेल।
मिल-जुल कर सब जातियाँ,करें देश उत्थान।
छुक-छुक कर चलती रहे,सतरँग की ये रेल।

ललित

ताटंक छंद
चिड़िया

छोटी-सी इक नन्ही-सी इक ,चिड़ियामेरे घर आई।
मनी-प्लाँट की बेल न जाने,क्यों उसके मन को भाई?
एक माह तक हर-दिन थोड़े,तिनके चुन मुँह में लाई।
बना घोंसला मनी-प्लाँट पर,बन बैठी सबकी ताई।

ललित

आधार छंद
गर्मियाँ

कैसी-कैसी गर्मियाँ,सह सकते हैं आप।
वृक्ष लगो जब काटने,ये कर लेना माप।
हरी-भरी थी जो धरा,वन-उपवन समृद्ध।
कटे वृक्ष तो दे रही,नर को निशि-दिन शाप।

ललित

आधार छंद
नंदकिशोर

नैन बंद कर राधिका,मंद-मंद मुस्काय।
नटखट नंद-किशोर का,हिय में दर्शन पाय।
सब कहते वो साँवरा,ऐसा है चितचोर।
जिसका दिल चोरी करे,उसके हिय बस जाय।

ललित

आधार छंद
नई पौध

अनजानी सी हो गई,अब तो हर पहचान।
कंकरीट में फँस गई,ज्यों धरती की जान।
जल बिन बंजर हो रही,धराआज हर ओर।
वन-उपवन सर-कूप से,नई पौधअंजान।


ललित

रोला छंद
जजबात

फूलों के जजबात,यहाँ कब समझा कोई?
काँटों के सह वार,सदा ही कलियाँ रोई।
कलियाँ बनके पुष्प,कहाँ अब खिल पाती हैं।
पानी की क्या बात,हवा कातिल पाती हैं।

ललित


छंद सिंधु
कलियाँ

कहीं कलियाँ बिखरती थी हवाओं में।
कहीं भाषण दिए जाते चुनाओं में।
कहीं थी लाडली अस्मत रही खोती।
कहीं थी चैनलों पर ही बहस होती।

ललित

कलियाँ
छंद सिंधु

न कलियाँ मुस्कुरा सकती कभी खुलकर।
हवा में बह  रही जब वासना घुलकर।
न फूलों में बची खुशबू वहाँ कोई।
कि मानवता जहाँ मुख फेर कर सोई।

ललित

कलियाँ
मुक्तक 16-14

कलियाँ सब सिकुड़ी-सिमटी हैं,पवन चली हाहाकारी।

कंटक चीर रहे कोमल-तन,सिसक रही अबला नारी।

खग भी उड़ने से डरते हैं,बाज झपटते हैं ऐसे।

कैसा भारत कैसी महिमा,कैसे ये  सत्ताधारी?

ललित

देह
आधार छंद

पंचतत्त्व से जो बनी,भरी विषों से देह।
साथ सदा देगी नहीं,मत कर उससे नेह।
वृद्धावस्था में सदा,तन को छोड़े चाम।रसना से नित चाट तू,राम-नाम अवलेह।

ललित

सपने
मुक्तक  

सपनों की दुनिया में खोए,जगकर चलना भूल गए।
पापों से जो फटी चुनरिया,उसको सिलना 
भूल गए।
बचपन बीता गई जवानी,वृद्धावस्था गले पड़ी।
नाते-रिश्ते रहे निभाते,खुद से मिलना भूल गए।

ललित

जिंदगी
आधार छंद

चार दिनों की ज़िंदगी,हँसकर जी ले मीत।
कान लगाकर सुन ज़रा,जीवन का संगीत।
सुन कोयल की कूक तू, झरनों की आवाज़।
खुश रहना तू सीख ले,छिपी इसी में जीत।

ललित

गर्मी
आधार छंद

कुछ तो गर्मी कम करो,हे! दिनकर भगवान।
लू-लपटें नित ले रही,मासूमों के प्राण।
ताल-तलैया कूप में,जल की बची न बूँद।
एसी-कूलर ठप हुए,साँसत में है जान।

ललित

वृक्ष
आधार छंद

धरती को नंगा किया,काट-काट कर वृक्ष।
रुकी धरा की साँस है,घायल उसका वक्ष।
अब गर्मी का दोष दें,दिनकर को सब लोग।
मन ही मन कहते रहें,मानव खुद को दक्ष।

ललित
10.06.19

भोला-बाबा
कबीर छंद/सरसी

भोला-भाला बाबा आया,मात तुम्हारे द्वार।
श्याम-लला के दर्शन करने,की है बस  दरकार।
झाड़-फूँक कर नजर उतारे,ये बाबा है खास।
बालक रोना बंद करेगा,आएगा जब पास।

ललित 

कलियाँ
कबीर छंद/सरसी

भारत में कलियों का खिलना,दूभर कितना आज?
खिलने से पहले तन नोचें, कदम-कदम पर बाज।
सरकारें ही जब अंधी हों,अंधे थानेदार।
न्याय मिले आहत कलियों को,करो नहीं दरकार।

ललित

श्याम साँवरे
कबीर छंद/सरसी छंद

श्याम साँवरे तेरी मुरली,की धुन है क्या खूब।
धरती अम्बर और सितारे,जाते जिसमें  डूब।
सपने में ही हमें सुना दे,उस वंशी की तान।
जिसकी मधुर धुनों में बसती,है राधा की जान।

ललित

चाय
कबीर छंद

छम-छम-छम-छम बजें पायलें,जियरा झूमा जाय।
आएँगें अब साजन पीने,अदरक वाली चाय।
आज कहू्ँगी मैं प्रियतम से,अपने मन की बात।
मोबाइल को छोड़ो ये है,मधुर-मिलन की रात।

ललित

इंद्रधनुष
कबीर छंद

घन-घन-घन-घन बादल गरजें,मोर मचाएँँ शोर।

ऊँचे पर्वत के पीछे से,झाँके स्वर्णिम भोर।

शीतल निर्मल जल की बूँदें,ले आई बरसात।

इंद्रधनुष ने सात रंग की,दी अद्भुत सौगात।

ललित

17.06.19


कबीर छंद
सलाह

भाग-दौड़ से जीवन की कुछ,समय निकालो आप।
सुबह-सैर दो कोस करो सब,मिट जाएँ संताप।
खुली हवा में बैठो थोड़ा,कर लो कुछ व्यायाम।
प्राणायाम ज़रा कर लो तो,मन पाए विश्राम।

ललित

19.06.19

सुख-दुख
कुकुभ छंद

सुख-दुख में गोते खाते ही,बीत गया जीवन सारा।
वृद्धावस्था में आकर क्यूँ ,लगता है जीवन हारा?
जिस मस्ती में यौवन बीता,उस मस्ती में अब जी ले।
औरों से मत कर आशा तू,खुद अपने सब ग़म पी ले।

ललित

बाँसुरिया
कुकुभ छंद

जादू नगरी से बाँसुरिया,ऐसी लाया नँदलाला।
अधरों से जब लगती है तो,झूम उठे हर व्रज-बाला।

गोप-गोपियाँ दौड़े आते,काम छोड़ कर सब आधा।
बिना पादुका दौड़ी आती,सुन मुरली की धुन राधा।

ललित

मोबाइल
कुकुभ छंद

मोबाइल का भूत सभी को,लगता है बेहद प्यारा।
पाँच इंच की डिबिया में अब,बंद हुआ है जग सारा।
शादी की हर वर्ष-गाँठ अरु,जन्म-दिवस ये दिखलाता।
किसे बधाई कैसे देनी,मोबाइल ही सिखलाता।

ललित

दिनकर
कुकुभ छंद

एक अकेला दिनकर सारे,जग को रोशन कर देता।
स्वर्ण-रश्मियों की झिलमिल से,धरती का तम हर लेता।

जो नित सूर्यदेव को जल का, अर्पण करता इक लोटा।
दसों दिशा यश फैले उसका,कभी न देखे दिन खोटा।

ललित

20.06.19
कान्हा
कुकुभ छंद

माटी-खाना माखन-खाना,चोरी-करना कब छोड़ा?
ओ कान्हा बतला दे तूने,कपड़े हरना कब छोड़ा?
जिस प्यारी राधा के सँग तू,नंदन-वन में नित झूला।
जरा बता दे उस राधा को,क्यों-कर कैसे कब भूला?

ललित

बदरा प्यारे
ताटंक छंद

सूख गया सब नीर धरा का,बचे समंदर हैं खारे।
अधर नैन मन की प्यासों से,नर-नारी सब हैं हारे।
इंद्र-देव से आज्ञा लेकर,बरसा दे जल
के धारे।
इस धरती की प्यास बुझाने,आजा ओ बदरा प्यारे।

ललित


22.06.19
कुकुभ छंद
श्रृंगार

अंग सुकोमल रूप मनोहर,
चंचल चितवन तिरछी सी।

कान्हा की दीवानी राधा,
बोले तीखी मिरची सी।

छम-छम-छम-छम करती आए,
गीत बाँसुरी जब गाए।

देखे उसको इक-टक मोहन,
नज़र शरारत कर जाए।

ललित

चंचल मन
कुकुभ छंद

चंचल मन नित खोया रहता,नए-नए सुख-सपनों में।
खोजा करता खुशियों के पल,सभी परायों-अपनों में।
आनँद अपने अंदर का क्यों,देख नहीं ये मन पाता ?
वो आनँद जो अनुभव करता,नर वो भव से तर जाता।

ललित

वोट
कुकुभ छंद

देश-प्रेम की बातें कर जो,वोट बटोरा करते हैं।
उनसे अच्छे भिखमंगे गा,भजन कटोरा भरते हैं।
कुछ नेता जनता को धोखा,दे हत्याएँ करवाएँ।
कुछ वोटों की खातिर अपने,ही लोगों को मरवाएँ।

ललित

आपा-धापी
ताटंक छंद

कैसी आपा-धापी में कब,ये जीवन सारा बीता?
समझ नहीं पाया कुछ भी मन, क्या हारा अरु क्या जीता?
बचपन की कुछ मीठी यादें,सुंदर स्वप्न जवानी के।
यही बचे हैं अब झोली में,अंतिम दौर रवानी के।

ललित

ताटंक छंद
राधा-राधा

राधा-राधा रटते-रटते,मोर-मुकुट सिर है धारा।
कारे-कारे मनमोहन की,अँखियों में कजरा कारा।
पीताम्बर पहना दे मैया,राह निहारे है राधा।
बाँसुरिया-लकुटी पकड़ा दे,दिन चढ़ आया है आधा।


ललित

ताटंक
नवीन भाव

फूलों की बगिया में सौरभ,की ऐसी महिमा पाई।
हवा चुरा खुशबू सुमनों से,मन-आँगन में ले आई।
पुलक उठा यों मन का उपवन,
सौरभ से भीनी-भीनी।
आई हो ज्यों स्वप्न सुंदरी,ओढ़ चुनर झीनी-झीनी।

ललित

नन्ही परी
ताटंक छंद

सुंदर सपनों में रँग भरने,नन्ही एक परी आई। 
रंग-बिरंगे खुशियों के पल,अपनी झोली में लाई।
प्यारी-प्यारी बातें करती,शैतानों की नानी 
है।
रोज रात को दादू से वो,सुनती नयी कहानी है।

ललित

कारे बदरा
ताटंक छंद

कारे बदरा आगे मत जा,नीर यहीं बरसा जा रे।
जल बिन सूखे अधर हमारे,क्यों हमको
तरसाता रे?
बहुत सही है गर्मी हमने,लू ने बहुत तपाया है।
वो शीतलता हमको दे जा,सागर से जो लाया है।

ललित

बेटी
 ताटंक छंद

बहुत पढाया बेटों को अब,बेटी को भी मौका दो।
अपनी प्यारी बेटी को मत,जबरन चूल्हा चौका दो।
बेटी के सपनों में सुंदर,प्यारे रँग भरते जाओ।
उसकी राहें आसाँ कर दो, हर बाधा हरते जाओ।

ललित

सुख-दुख
कुकुभ छंद

सुख अरु दुख की परिभाषाएँ,आपस में यों उलझी हैं।
जीवन भर सुलझाए नर-मन,लेकिन ये कब सुलझी हैं?
दुख में सुख अनुभव करने की,कला कई
मानव जानें।
और कई मानव सुख में भी,अल्प कमी को दुख मानें।

ललित

राधा-कान्हा
ताटंक छंद

मन-मन्दिर में शोभित हो जब,राधा-कान्हा की जोड़ी।
नयन बन्द करते ही उठती,आनँद की लहरें थोड़ी।
कभी दिखाई देता कान्हा,मन्द-मन्द मुस्काता सा।
कभी दिखाई देता आँखें,गोल-गोल मटकाता सा।

नंदन-वन में गाय चराता,मुरली मधुर बजाता वो।
कभी राधिका अरु सखियों सँग,मनहर रास रचाता वो।
गोवर्धनधारी जो देता,मात इंद्र की चालों को।
खेल-खेल में वो मिलवाता,ईश्वर से व्रज वालों को।

ललित

बाबुल का अँगना
ताटंक छंद

अँखियों में हैं सुंदर सपने,दिल में प्रीत पिया की है।
डोली में बैठी है गोरी,थामे रास हिया की है।
छोड़ चली बाबुल का अँगना,छूट गईं सखियाँ सारी।
पहली पारी खेल चुकी अब,खेलेगी दूजी पारी।

ललित

माली
ताटंक छंद

फूलों में सुंदर रँग भरकर,खुशबू किसने है डाली?
सोच रहा खुश हो कर माली,देख गुलाबों की लाली।
मुस्कानों को भी देते हैं,जो सीखें मुस्काने की।
वही सुमन जानें तरकीबें,काँटों से टकराने की।

ललित

बच्चे
ताटंक छंद

सोच पुरानी की अब खिल्ली,उड़ा रहे हैं 
जो बच्चे।
जीवन की दुर्गम राहों में,इक दिन खाएँगें 
गच्चे।
जो जनरेशन-गैप कहाता,नहीं समझ में आता है।
बच्चों के बच्चे होते तो,गैप कहाँ खो जाता है?

ललित

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