अप्रेल 2019

अप्रेल 2019

मुक्तक 16-14

जितना काला कृष्ण-कन्हैया,उतनी गोरी है मैया।
क्या जाने मैया ये कान्हा,तारेगा सबकी नैया।
माखन-मिश्री खिला जिसे वो ,रोज सुनाती है लोरी।
नहीं जानती नाग-फणों पर,नाचेगा ता-ता थैया।

ललित


आल्हा छंद

रंग-बिरंगी बाँसुरिया मैं,ले आया हूँ बीच बजार।

मधुर धुनों से जो भर देगी,कर्णों में मधुरिम रस-धार।

अधरों से लगकर गाएगी ,मन को सुख दें ऐसे गीत।

इसी मुरलिया से कान्हा ने,पाई थी हर दिल पर जीत।

सात सुरों के संगम से ये,मधुर धुनों की छेड़े तान।

सुनने वाले के अधरों पर ,छा जाती है मधु-मुस्कान।

सिखलाती जीवन जीने का,एक अलग ही ये अंदाज।

इसीलिए तो करता था वो, श्याम मुरलिया पर यूँ नाज।

ललित


कुण्डलिनी

वोट माँगता फिर रहा,गली-गली वो खास।
बाद चुनावों के नहीं,डालेगा जो घास।

डालेगा जो घास,गधों को या चमचों को।
कर लो ये विश्वास,नहीं  ऐ मित्रों चौंको।

ललित

मधुमालती छंद

नदिया जहाँ कल-कल बहे।
सुरभित हवा शीतल बहे।
सुख-छाँव वंशीवट करे।
नित भोर गोरी घट भरे।

फूलों भरी सब क्यारियाँ।
मुस्कान की फुलवारियाँ।
कलियाँ सभी खिलने लगें।
प्रेमी हृदय मिलने लगें।

ललित

मधुमालती छंद

नव वर्ष में है कामना।
माँ हाथ मेरा थामना।
मुश्किल न आए राह में।
हर-पल रहूँ उत्साह में।

सत्संगियों से नित मिलूँ।
सद्धर्म के पथ पर चलूँ।
करता रहूँ माँ बन्दगी।
पुरुषार्थ मय हो जिंदगी।

ललित
क्रमशः

मधुमालती छंद

फिर सोचना क्या प्यार में?

जब रब दिखा दिलदार में।

संसार सुंदर हो गया।

जब यार में दिल खो गया।


इस प्यार में क्या बात है?

चंचल हुआ ये गात है।

मन की कली खिलने लगी।

दीवानगी पलने लगी।


ये प्यार की दीवानगी।

जिसकी नहीं कुछ बानगी।

साँसें रुकें रुक-कर चलें।

सुख-स्वप्न नयनों में पलें।


सजना नयन में आ बसा।

छाया बहारों पर नशा।

जब भी मिलें सजना कहें।

हर पल मिलें मिलते रहें।

ललित

मधुमालती छंद

कुछ धूप में कुछ छाँव में।
जीवन जिया इस गाँव में।
कुछ प्यार में कुछ खार में।
भटका किया मँझधार में।

अब आ गया वो दौर है।
इक हाशिया हर ओर है।
यूँ ही गुज़ारी ज़िन्दगी।
कुछ हो न पाई बन्दगी।

जो ख्वाब थे दिल में पले ?
वो कब हकीकत में ढले ?
कुछ स्वप्न सपने रह गए।
कुछ आँसुओं में बह गए ।

जो ज़िन्दगी की चाल है।
उलझी हुई हर हाल है।
जैसी मिले स्वीकार है।
जैसी चले स्वीकार है

ललित

मधुमालती
रास आनंद.

वंशी अधर से ज्यों छुई।

वो चाँदनी शीतल हुई।
मुरली मधुर बजने लगी।
घर गोपियाँ तजने लगी।

जो बाँसुरी की धुन सुने।
वो राह मधु-वन की चुने
चूड़ी बजे पायल बजे।
गजरा सजे वेणी सजे।

जब श्याम से नैना मिले।
गल-हार राधा का हिले।
सब गोप-गोपी झूमते।
बादल धरा को चूमते।

ललित

कुण्डलिनी छंद

हाथ जोड़ कर माँगता,नर-नारी से वोट।
अधरों पर मुस्कान है,दिल में भारी खोट।

दिल में भारी खोट,करे वो झूठे वादे।
वादों पर दें वोट,सभी जन सीधे-सादे।

ललित

गीतिका

रासलीला गीतिका कुछ यूँ बनी
सादर प्रस्तुत....
2122 2122 212

कृष्ण-राधा-रास की क्या बात है?
रात पूनम की बनी  सौगात है।

गोप-गोपी सँग कन्हैया नाचता।
हर लता का झूमता हर पात है।

धुन सुरीली बाँसुरी की गूँजती।
ताल दे-दे झूमता हर गात है।

चाँद भी रुक सा गया आनंद में।
रास-लीला की अनोखी रात है।

पायलें छम-छम-छमा-छम बोलतीं।
बाँसुरी को आज देनी मात है।

आत्म की सब खुल रही हैं गुत्थियाँ।
हो रही परमात्म-रस बरसात है।

रास-लीला ज्ञान ये है दे रही।
आत्म औ' परमात्म की इक जात है।

ललित किशोर 'ललित'


सार छंद

शिव-शंकर से माँग रहा हर,नेता आज मनौती ।
पहन श्वेत खादी का कुर्ता,और बाँध कर धोती।

नहीं चाहिए सोना-चाँदी,गहने-हीरे-मोती।
सीट वही दिलवा दे बाबा,संसद में जो  होती।

बैठ सीट पर मैं जाऊँ तो,सेवक कहलाऊँगा।
अपने घर में धन-दौलत की ,वर्षा कर पाऊँगा।

मुझे बता दे बाबा कैसे ,जनता ये रीझेगी।
करूँ घोषणा क्या जिससे ये,वोट मुझे ही देगी?
ललित


मुक्तक( विष्णुपद आधारित)

हे शिवशंकर हे अभयंकर,निर्भय तू कर दे।
अमर सुहाग रहे मेरा हे!नाथ मुझे वर दे।

हे मात-अम्बिके-दुर्गा-गौरी,विनती है तुझसे।
रहूँ सुहागिन अंत-साँस तक,हाथ शीश धर दे।

ललित

9.4.19
तोटक छंद

112 112 112 112

हर भोर बजे मुरली व्रज में।
बस प्यार बसा जिसकी रज में।
वृषभानुसुता सँग साँवरिया।
चहकें सखियाँ सुन बाँसुरिया।

ललित

10.04.19
तोटक छंद

112 112 112 112

गणनाथ गजानन प्रात जपे।
नर वो न कभी दुख-धूप तपे।
जिस द्वार विराज गणेश रहे।
उस द्वार नहीं दुख-क्लेश रहे।

शिवशंकर नाम सदा जपता।
नर वो भव-ताप नहीं तपता।
मन में शिव-ध्यान किया करता।
भव-सागर से नर वो तरता।

हरि-नाम जपे नर जो मुख से।
दुख भी सहता समता-सुख से।
हरि मूरत देख झुके सिर जो।
भव-सागर पार करे फिर वो।

वृषभानुसुता सँग श्याम कहे।
सुख की सरिता नर डूब रहे।
मुरलीधर का नित ध्यान धरे।
नर वो भव से हर हाल तरे।

सिय-राम बसें जिसके मन में।
कब रोग बसें उसके तन में।
बजरंग-बली सिय-राम भजे।
नर वो भव-दुःख तमाम तजे।

ललित

तोटक छंद

112 112 112 112

चलता-फिरता दिखता नर है।

पलता कितना विष भीतर है।

चुपचाप निरंतर रोग बढ़े ।

फिर देह तपे अरु ताप चढ़े।


फिर डाक्टर चंगुल वो फँसता।

मन ही मन डॉक्टर है हँसता।

वह फीस व जाँच कमीशन ले।

लिख डोज बड़ी पोजीशन ले।


ललित

तोटक छंद

112 112 112 112

नव-वधू

बलखाय चले इठलाय चले।

पग-पायल खूब बजाय चले।

चहकी-चहकी फिरती अँगना।

नव-सेज सजी बजते कँगना।


अमियाँ लटकें वन-बागन में।

छमियाँ रमती निज साजन में।

सजना सँग प्रीत जवान हुई।

अँखियाँ अब तीर-कमान हुई।

ललित

गीतिका छंद

ज़िन्दगी का हर सितम हम,प्यार से सहते गए।

दुःख-सुख की धार में हम,नाव-सम बहते गए।

स्वप्न टूटे चौंक कर हम ,नींद में जगने लगे।

अब किनारे भी पराए से हमें लगने लगे।

ललित

मुक्तक

भूल-भुलैया में जीवन की,आँख मिचौली 

खेल लिए।

हमने सब किस्मों के पापड़,इस जीवन में बेल लिए।


खुशियों के सब स्वप्न सुनहरे,किर्चों में बिखरे देखे।

अब क्या बाकी रहा झेलना,बेदर्दी गम झेल लिए।


ललित किशोर 'ललित'


12.4.19

तोटक छंद

मन

मन चंचल धीर नहीं धरता।

नव-आस लिए उड़ता फिरता।

समझा मन की गति कौन यहाँ?

समझा मन की मति कौन यहाँ?


कुछ ज्ञान लिए नर डोल रहा।

मन मेंं मन को नर तोल रहा।

तन में नर खोज रहा मन को।

मन मौन करे बस में तन को।


मन जो कहता तन वो करता।

मन तर्क-वितर्क कला-धरता।

कुछ धीर हुए ऋषि-संत बड़े।

मन सम्मुख ज्यों हनुमंत अड़े।


मन हार रहा जब था रण में।

गुरु-ज्ञान-प्रकाश मिला क्षण में।

मन को वश में कर कृष्ण-सखा।

उस अर्जुन ने गुरु-मान रखा।

ललित

तोटक छंद

 मित्र

सुख में दुख मेंं अरु दुर्दिन में।

रहता सँग जो सब व्याधिन में।

वह नंद-लला गिरिराज उठा।

व्रज-वासिन संकट देत मिटा।


ललित

तोटक छंद

सिय-राम

सिय-राम सदा जप लो मुख से।

जय तारण-हार कहो सुख से।

जप ये हनुमान सदा करते।

भव-ताप दुखी-जन के हरते।


दिल में सिय-राम बिठाय लिए।

दिल-चीर सबै दिखलाय दिए।

हनुमान समान न भक्ति कहीं।

सिय-राम समान न शक्ति कहीं।


शबरी तकती नित राह जहाँ।

वन में पहुँचे प्रभु राम वहाँ।

चख बैर खिलाय रही शबरी।

पद-पंकज ध्याय रही शबरी।


मन केवट पावन भाव रहा।

तट-गंग लिए निज नाव रहा। 

उसको पग राम पखारन दें।

निज भक्तन जन्म सुधारन दें।


सिय-राम सदा जप लो मुख से।

जय तारण हार कहो सुख से ।

ललित

15.04..19

शक्ति छंद

122 122 , 122 12

लगी डूबने नाव उनकी जहाँ।

मिले मंच पर एक सारे वहाँ।

निराला बहुत एक दुश्मन मिला।

सभी को उसी से रहा बस गिला।


करें यत्न सब हाथ में हाथ दे।

कि दुश्मन नहीं अब हमें मात दे।

लिए हाथ पतवार भागें सभी।

किनारे बड़ी दूर दिखते अभी।

ललित

शक्ति छंद

122 122 , 122 12

बजाए लला जादुई बाँसुरी।

चले राधिका के जिया पे छुरी।

मचलते जिया को लिए हाथ में।

लगी राधिका नाचने रात में।

सुरीली बड़ी बाँसुरी की धुनें।

मगन ध्यान में गोप-गोपी सुनें।

थिरकने लगे घुँघरुओं के वदन।

कि मदहोश खुद होगया है मदन।

ललित

शक्ति छंद

122 122 , 122 12

सद्भाव

न सोचें-विचारें  ,न मानें कभी।

न आचार-व्यवहार, जानें कभी।

रहे दौड़ अंजान पथ-पर युवा।

कि मंजिल जहाँ वासना का कुँआ।


न अनुभव-भरा ज्ञान ही चाहिए।

सहारा किसी का नहीं चाहिए।

फँसेगी भँवर में कभी नाव जो।

करेंगें तभी याद सद्भाव को।

ललित

शक्ति छंद

122 122 , 122 12

चाँदनी

महकती हुई चाँदनी रात में।

सितारे चले चाँद के साथ में।

हसीं चाँदनी ने धरा को छुआ।

मिली ज्यों धरा को अनोखी दुआ।


ललित

चाँदनी

दुआ में धरा को मिली चाँदनी।

धरा के बिना कब खिली चाँदनी?

मिली बादलों से जहाँ चाँदनी।

गुमी बादलों में वहाँ चाँदनी।

ललित

चाँदनी

नहीं बादलों में घुली चाँदनी।

गले चाँद से जा मिली चाँदनी।

चमकने लगा चाँद फिर रात में।

सितारे हँसे चाँद के साथ में।

मुक्तक 16-14

कुछ ज़ुबान से फिसले होंगें,कुछ यूँ ही बोले होंगें।

बेचारे नेता ने शायद,शब्द नहीं तोले होंगें।

शब्दों की माया-नगरी में,उलझे जो नेता सारे।

क्यों उनको लगता है वोटर,गैया-सम भोले होंगें?

ललित

आल्हा छंद

मतदाता पहचान पत्र क्या,होता क्या बोलो आधार?

कैसा होता है घर पक्का,होता क्या उसका आकार?

नहीं जानते हैं हम कुछ भी,कैसे डाले जाते वोट।

भूखे ही सो जाते हैं हम,रोज़ इसी पाइप की ओट।

ललित

शक्ति छंद

सदा खिल-खिलाकर हँसे प्यार से।

बिखेरे खुशी सौम्य व्यवहार से।

निराली सरस रास-लीला करे।

लुटा आत्म-रस प्रीत-प्याले भरे।


रही राधिका खोज उस चोर को।

रखे शीश पर जो मुकुट-मोर को।

बजा बाँसुरी चैन जिसने हरा।

छुपा है कहाँ श्याम मुरलीधरा?


ललित

शक्ति छंद

प्रभो द्वार तेरे खड़े हम सभी।

निहारो हमें प्यार से भी कभी।

बनाए रखो नाथ ऐसी कृपा।

नहीं दुःख हमको सकें अब तपा।

ललित

शक्ति छंद

कृपा है प्रभो आपकी सब कृपा।

नहीं दुःख मुझको सके जो तपा।

यही मात्र विनती करूँ रात-दिन।

न इक-पल गुजारूँ कभी जाप बिन।

ललित

शक्ति छंद

नदी

122 122 122 12

नदी नाव की मित्रता हो जहाँ।

न कैसे किनारा मिले फिर वहाँ?

मिले आत्म को ज्ञान परमात्म का।

न उद्धार रुकता वहाँ आत्म का।


चले जीव सद्भाव के पथ सदा।

करे कूप उपकार ज्यों सर्वदा।

न गंगा न यमुना उसे धो सके।

भरा मैल मन में अगर नर रखे।

ललित 

मुक्तक 16-10

चोर-चोर का शोर मचाते,मुख सूखे जिनके।

हाथ जोड़ माफी माँगें अब,उतरे मुँह उनके।

खोजा करते थे तिनके जो,दाढी में सबकी।

साफ जरा कर लें वो खुद की ,दाढी के तिनके।

ललित 

शक्ति छंद

कली

122 122 122 12

मिली स्वप्न में एक नाजुक कली।

बड़ी खूबसूरत बड़ी मनचली।

निगाहें मिलाकर झुकाती रही।

कली स्वप्न में भी छकाती रही।


कभी प्यार से वो निहारे हमें।

यही सोचकर हम वहाँ थे थमे।

मगर प्यार की बात मन में रही।

खुली नींद तो स्वप्न नगरी बही।

ललित

पियूष वर्ष छंद

2122 2122 212

प्यार हर दिल में पनपता है जहाँ।

ज़िंदगी भी मुस्कुराती है वहाँ।

ज़िन्दगी जिंदादिली से जो जिए।

है भला गम चीज क्या उसके लिए?

ललित

पियूष वर्ष छंद

बाँसुरी

2122 2122 212

बाँसुरी की मस्त धुन में खो गया।

वो कन्हैया का दिवाना हो गया।

नाम राधा का जपे दिन-रात है।

चाहता घनश्याम का जो साथ है।

ललित

पियूष वर्ष छंद

प्यार  

2122 2122 212

प्यार की धुन में मगन दो दिल मिले।

फूल खुशबू से भरे सुंदर खिले।

नैन में हैं स्वप्न सुख-संसार के।

दिल धड़कते हैं लिए सुर प्यार के।


प्यार की खुशबू भरी हो ज़िंदगी।

है नहीं इससे बड़ी कुछ बंदगी।

प्यार है निष्काम जिस दिल में भरा।

है वही दिल हर कसौटी पर खरा।


प्यार की नगरी बड़ी जादू भरी।

प्रीत की नौका भँवर में भी तरी।

चाँद-तारों को ज़मीं से आस है।

प्रेम के दम पर टिका आकाश है


हर समंदर प्यार का प्यासा दिखा।

प्यार सबके भाग्य में है कब लिखा?

प्रीत की हो प्यास जिस दिल में जगी।

इक अनोखी आग उस दिल में लगी।

ललित

पियूष वर्ष छंद

प्रदूषण

2122 2122 212

ज़िंदगी का बेसुरा अब राग है।

अब हवाओं में सुलगती आग है।

स्वार्थ नर ने इस कदर पोषित किए।

वायु,धरती और जल दूषित किए।

ललित

पियूष वर्ष छंद

2122 2122 212

चैन मन पाए नहीं संसार में।

खूब भटके रूप के बाजार में।

ध्यान तब धर लो जरा तुम श्याम का।

नाम जप लो तब जरा तुम राम का।

ललित

पियूष वर्ष छंद

2122 2122 212

साजना ये चाँदनी क्या कह रही?

प्रीत की प्यासी नदी क्यों बह रही?

चाँद से है चाँदनी को प्रेम गर।

प्यार करती है समंदर से लहर।

ललित

पियूष वर्ष छंद

2122 2122 212

सोलहों श्रृंगार कर सजनी सजी।

छम-छमा-छम रात भर पायल बजी।

तार दिल के छेड़ बैठा यूँ पिया।

नींद रूठी हो गया चंचल जिया।

ललित

प्रदीप छंद

16-13

हिंद देश की आजादी का,पर्व बड़ा मतदान का।

वोट डालने से चमकेगा, मुखड़ा हिंदुस्तान का।

सोचो,समझो और विचारो,किसको देना वोट है।

चुनो उसीको अपना नेता,जिसमें कुछ कम खोट है।

ललित

प्रदीप छंद

16-13

मनमोहना हे! श्याम सलौने,विनती इतनी सी सुनो।

चरणों की सेवा में प्रभु जी,चाकर मुझको ही चुनो।

इक पल भी मैं तुम्हें न भूलूँ,सुमिरन आठों 

याम हो।

राधे-कृष्णा जाप तुम्हारा,जिव्हा से अविराम हो।

ललित

प्रदीप छंद

16-13

भोर सुहानी मंगलकारी,देती है संदेश ये।

मुस्कानों की चादर ओढ़ो,छोड़ क्लेश का वेश ये।

नित्य भोर में ऊर्जा भर लो,तन में प्राणायाम से।

ध्यान-भजन का समय निकालो,थोड़ा दैनिक काम से।

ललित

मुक्तक 16-14

सपनों की माया-नगरी में,उधेड़-बुन  सपना होगा।

सत्य एक ईश्वर का मन से,नाम सदा जपना होगा।

ये संसार असत्-क्षण-भंगुर,मान बात ये ले प्राणी।

संचय कर लेगा तू जितना,पुण्य वही अपना होगा।

ललित किशोर 'ललित'


मधुमालती छंद

2212 2212

जीवन पुकारे ओ पथिक।
रुकना न तू इक पल तनिक।
चलता निरंतर जो रहे।
मंजिल उसी की हो रहे।

हो कंटकों से सामना।
तो पग न अपना थामना।
फूलों भरी राहें मिलें।
सम्भव नहीं ये सिलसिले।

ललित

अप्रेल 2019

मधुमालती छंद

2212 2212

हर आदमी इस देश का।
हर जाति का हर वेश का।
हर राज्य का हर गाँव का।
पूछे पता बस छाँव का।

हर छाँव उससे छिन गई।
बस धूप है हर दिन नई।
अब छाँव भी बिकने लगी।
रोटी कहीं सिकने लगी।

कुछ भाषणों में खो रहे।
कुछ बोझ अपना ढो रहे।
जनता झुकी ही जा रही।
बस स्वप्न में सुख पा रही।

नेता निराले हैं यहाँ।
पग-पग शिवाले हैं यहाँ।
नेता वहीं सुख पा रहे।
निश-दिन शिवाले जा रहे।

है देश की चिन्ता किसे?
नेता बना जो क्या उसे?
ये सोचने की बात है।
नेता करे क्यों घात है?

ललित






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