माता-पिता-बेटा-बेटी


पियूष वर्ष छंद
दुआ

फूल उपवन से चले मुख मोड़कर।
क्यारियों में डालियों को छोड़कर।
डालियाँ जड़ से बँधी हरदम रहीं।
और जीवन में सहा कुछ गम नहीं।

पुष्प चल पाए कदम दो चार ही।
और जड़ का पा न पाए प्यार ही।
कौन सुन पाए कभी उन की व्यथा?
भोगते जो आप ही अपनी खता।

दूर रहकर भी जड़ों को पूजते।
पुष्प वो क्यों आज गम से धूजते?
प्यार से देती जड़ें उनको दुआ।
तो हवा भी आज बन जाती दवा।

ललित

कुण्डलिनी छंद

प्यारी होती है सुता,प्यारा उसका साथ।
हो जाती इक दिन विदा,थाम सजन का हाथ।
थाम सजन का हाथ,चली जाती है जैसे।
उसके दिल की पीर,समझ आएगी कैसे?

ललित

कुण्डलिनी
नहीं हुआ पैदा अभी,कवि-लेखक निष्णात।
शब्दों में जो लिख सके,माँ-मन के जजबात।
माँ-मन के जजबात,समन्दर से भी गहरे।
इतने शांत कि पूत,नहीं सुन सकते बहरे।

ललित

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