ज़िंदगी,दिल,दर्द

पियूष वर्ष
कुछ यूँ ही

जिन्दगी का इक अजब अन्दाज है।
हर फसाने में छिपा इक राज है।
जिन्दगी ये गुल खिलाती है कभी। 
राह में कंटक बिछाती है कभी।

दंश दे देती कभी इतने बुरे।
खवाब में सोचे न थे जितने बुरे।
और बन जाती कभी है बन्दगी।
बन्दगी से ही निखरती जिन्दगी।

कौन जिन्दा है बिना गम के यहाँ।
बस गमों से ही भरा है ये जहाँ।
ईश में विश्वास रखते जो सदा।
हो नहीं पाते कभी वो गमज़दाँ।

ललित

सार छंद

कौन कहाँ कब दे जाएगा,दर्दे दिल दर्दीला?
जान नहीं पाता है कोई,ये विधना की लीला।
गरज-गरज जो बादल नभ में,झूम-झूम छाते हैं।
बिन बरसे ही जाने क्यों वो,दूर चले जाते हैं?

ललित

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