14 नजरें (कुकुभ छंद) भाग -2 साझा काव्य संग्रह

नज़रें  (भाग-2)  कुकुभ छंद
1
जैसा चश्मा नज़रों पर हो,दुनिया वैसी दिखती है।
काम-वासना के चश्मे से,कामी जैसी दिखती है।
नज़रों में इक प्रभु की छवि हो,चश्मा हो भगवद् गीता ।
भगवद् गीता जिसने पढ़ ली,समझो उसने जग जीता।
2
नज़र बचा कर चोरी करता,गोपी का माखन कान्हा।
नजर मिलाकर चोरी करता,हर गोपी का मन कान्हा।
कान्हा ऐसी किरपा करदो,नज़रों में तुम बस जाओ।
पलक बन्द हों फिर भी कान्हा,नज़र सदा बस तुम आओ।
3
कुछ शातिर ऐसे होते हैं,मन के भाव न दिखलाएं।
मन में उनके भाव छुपे जो,आँखों में न नज़र आयें।
नज़रों से सुर जैसे दिखते,अंतर्मन आसुर होता।
ऐसे मानव दानव ही हैं,जिनका अंतर्मन सोता।
4
मात पिता की नज़रों से जो,स्नेह सुतों को मिलता है।
उसी प्यार से जीवन बनता,बच्चों का दिल खिलता है।
मात पिता फिर प्यार ढूँढते,उन बच्चों की नज़रों में।
लेकिन प्यार कहाँ मिलता हैअंधे,गूंगे,बहरों में।
5     
शैल,समन्दर,वन उपवन सब,धरती,अम्बर अरु तारे।
सूरज,चँदा,धूप,चाँदनी,अगन,वायु, सरवर सारे।
नज़र किये हैं नारायण ने,साधन ये जीवन दाता।
कितना समझाया है इसको,पर मानव न समझ पाता।

'ललित'
       

          

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