4 कुकुभ छंद साझा काव्य संग्रह

कुकुभ छंद
1

माँ

माँ तेरे दामन की खुशबू,अब भी घर को महकाये।
स्नेह दिया जो तूने मुझको,अब भी मन को चहकाये।
क्या तू मुझको देख रही है,नील गगन की खिड़की से।
जीवन मेरा सँवर गया माँ,तेरी प्यारी झिड़की से।
2

दिल

दिल छोटा औ' पीर बड़ी है,नहीं किसी से कह पाऊँ।
दिल में उठती टीस बड़ी है,नहीं जिसे मैं सह पाऊँ।
अपनों ने जो घाव दिए वो,दिल में गहरे उतरे हैं।
उन घावों से आज हुए इस,दिल के कतरे-कतरे हैं।
3

कंटक

कुछ छोटे कंटक होते हैं,चुभने में अतिशय मीठे।
कुछ मध्यम कंटक होते जो,घाव करें हरदम ढीठे।
और बड़े कंटक जो सीधे,दिल के पार उतरते हैं।
नज़र नहीं आते हैं पर वो,दिल को रोज कुतरते हैं।
4

माया

जग की झूठी माया सच से,ओत-प्रोत हो रहती है।
सच की अनगिन पर्तों की वो,ओट लिए जो रहती है।
मृग मरीचिका माया मन को,यों दबोच कर रखती है।
चंगुल से वो छूट न पाये,माया ही सच दिखती है।
5

मुखड़े

कौन किसी का सगा जहाँ में,
        सभी पराये मुखड़े हैं।
सबकी अपनी-अपनी दुनिया,
         अपने -अपने दुखड़े हैं।
प्रेम-प्यार का नाम नहीं है,
          मतलब से सब मिलते हैं।
कलियुग में सब फूल-कली भी,
          मतलब से ही खिलते हैं।
'ललित'

No comments:

Post a Comment