7 दुर्मिल सवैया छंद साझा काव्य संग्रह

दुर्मिल सवैया छंद
1
बिजुरी चमके जियरा हुलसे,बहती मनमें रसधार पिया।
बरसें बदरा हमरे अँगना,खनकें कँगना अब ओ रसिया।
सतरंग भरा नभ ये कहता,परदेस न जा
मन के बसिया।
तन भीग गया मन भीग गया,चुनरी सरके बस में न जिया।
2
सब बात गई जब रात गई, कल की मत बात करो बहना।
कहते कँगना चुप ही रहना,अब प्रीत छुपा कर है रहना।
चुनरी सरके मनवा बहके, चुड़ियाँ खनकें झुमका पहना।
मन मीत मिला मन फूल खिला,यह प्यार बना तन का गहना ।
3
निरखें नभ से सुख से सुर हैं प्रभु राम चले गृह से वन को ।
पद चिन्ह गहे सुकुमारि चले अरु भ्रात निहारत पावन को।
मुसुकाति चले वनवास सिया परखे मन मोहक सावन को।
पगलाय रहे वन के बसिया अब देख
हाँ मन भावन को।
4
मन के तम को अब दूर करो,विनती करता कर जोड़ हरे।
इस जीवन में अब आस यही,कर दो मन का सब त्रास परे।
प्रभु आप अधार हो प्राणन के, जब होय कृपा हर ताप टरे।
हर लो अब घोर निशा तम को, मम जीवन में नव दीप जरे।
5
ललना जनमा ब्रज में सुख से,सुर पुष्प सबै बरसाय रहे
दर नंद यशोमति के सबरे,ऋषि गोपिन रूप धराय रहे।
शिव रूप धरे तब साधुन को,शिशु-दर्शन को ललचाय रहे।
डर मातु मनोहर मोहन को,निज आँचल माँहि छुपाय रहे।
'ललित'

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