5 विधाता छंद साझा काव्य संग्रह

विधाता छंद
1
कभी बहना कभी बेटी,कभी भार्या कभी पोती।
कभी वो माँ हमारी बन,खुशी के बीज है बोती।
पिला कर दूध बच्चों को,बड़े अरमान से पाले।
मगर बच्चे उसे देते,बड़े ही दुख भरे छाले।
2
सुखों को भोगने में ही,जवानी तू बिताता क्यूँ।
बुढापे के दुखों का डर,नहीं तुझको सताता क्यूँ।।
जवानी के दिनों में ही,प्रभू का नाम चख ले रे।
बुढापे के सुखों की तू,अभी से नींव रख ले रे।।
3
भला क्या है बुरा क्या है,नहीं तू जो समझ पाये।
लगा ले आत्म में गोता,वहीं से ज्ञान ये आये।।
जरा तू मौन रहने की,अदा भी सीख ले प्यारे।
जमीं,आकाश औ' तारे,सदा से मौन हैं सारे।
4
उसी गुलशन उसी घर से,विदा वो मात है होती।
सँवारा था कभी जिसको,जड़े थे प्यार के मोती।
नहीं वो पूछ पाती है,गई क्यों आज मैं ताड़ी।
जरा बेटे बता दे तू  ,उजाड़ी आज क्यूँ बाड़ी।।
5
जहाँ पुजती सदा नारी,उसी घर में उजाला है।
सजाती है जिसे बेटी,उसी घर में शिवाला है।।
जहाँ पुजती सदा माता,उसी घर में निवाला
है।
जहाँ आती नहीं लक्ष्मी,उसी घर में दिवाला है।।
'ललित'

माता पिता सुत बंधु तेरे,

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